एकल सिनेमा घरों की जगह समय की मांग है मल्टीप्लेक्स

1782
0
SHARE

धनंजय कुमार.

बदलते वक्त के साथ शहर बदले, शहरों की आबादी बदली, जेबों का वजन बदला और सिनेमाघर भी बदले. एकल सिनेमाघर (सिंगल थियेटर) की जगह मल्टीप्लेक्स का ज़माना आ गया. सीटों की संख्या भी कम हुई, लेकिन जहां मल्टीप्लेक्स कल्चर के अनुसार बदलाव नहीं आया, वहां के एकल सिनेमा घरों की स्थिति बद से बदतर होती चली गयी. और इन्हीं एकल सिनेमाघरों में भोजपुरी फ़िल्में लगती है.

मुम्बई के जिन 20-22 सिनेमाघरों में भोजपुरी फ़िल्में लगती है, वे भी वक्त के साथ नहीं बदलने वाले एकल सिनेमा घर ही हैं. बिहार की राजधानी पटना को छोड़कर बाकी शहरों के सिनेमाघर भी इसी श्रेणी के हैं, जो वक्त अनुसार बदले नहीं हैं और भोजपुरी फिल्में लगाने को अभिशप्त हैं.

ये एकल सिनेमाघर भोजपुरी फ़िल्में इसलिए नहीं लगाते कि इन्हें भोजपुरी फिल्मों से प्रेम है, बल्कि ये इसलिए लगाते हैं कि इनकी स्थिति जर्जर है. मेंटेनेंस के नाम पर झाडू- बहारू से अधिक नहीं होता. कुर्सियां टूटी हुई हैं, जो बची हैं, वे लोहे या लकड़ी की हैं. साउंड सिस्टम पुराना या खराब है. आवाज ठीक से सुनाई भी नहीं पड़ती. पिक्चर इसलिए ठीक ठाक दिख जाता है कि फ़िल्में अब प्रिंट से नहीं, यूएफओ के माध्यम से डिजिटल होकर दिखती हैं. यूरिनल्स गंदे और बदबूदार हैं. नतीजा है अच्छे पढ़े लिखे सभ्य  शहरी चाहकर भी फिल्म देखने इन सिनेमाघरों में नहीं आते. इस तरह इन एकल सिनेमाघरों में वही पब्लिक आती है, मजदूर वर्ग है, जिनको साफ़ सफाई की पड़ी नहीं है. जो बहुत पैसा नहीं खर्च कर सकते और जो मल्टीप्लेक्स में जाते हुए खुद को असहज पाते हैं.

इन एकल सिनेमाघरों के टिकटों के दाम कम हैं. 40 रुपये से लेकर अधिकतम 70-80 रुपये तक हैं, जबकि मल्टीप्लेक्स में टिकटों के दाम 80 रुपये से शुरू ही होते हैं और दो सौ से ढाई-तीन सौ तक जाते हैं.

इनके अलावा इन दोनों में एक और अंतर है, एकल सिनेमाघर में दर्शकों के बैठने की क्षमता पांच सौ से बारह सौ तक है, जबकि ज्यादातर मल्टीप्लेक्स के सिनेमाघरों की क्षमता दो सौ से लेकर अधिकतम पांच सौ तक की है. इस कारण मल्टीप्लेक्स की टिकट खिड़की पर तुरंत हाउस फुल का बोर्ड चमक जाता है, जबकि एकल सिनेमाघरों में मुश्किल से ऐसा मौक़ा आता है. हाउस फुल दर्शकों और सिनेमा बाजार से जुड़े लोगों के दिलो दिमाग पर आह्लाद से भर देने वाला असर करता है, जबकि 50 प्रतिशत भी खाली एकल सिनेमाघर निराशा का संचार करते हैं. इसलिए जब लोग कहते हैं कि भोजपुरी फिल्मों के दर्शक सिनेमाघरों में कम रहे हैं, तो वह सही आकलन  नहीं है.

यह ठीक है कि दर्शकों में अब भोजपुरी फिल्मों को लेकर वैसा क्रेज नहीं रहा, इंटरनेट की वजह से और भोजपुरी फिल्मों में एकरसता आ जाने की वजह से दर्शकों की संख्या घटी है, लेकिन एक वजह यह भी है कि वक्त के साथ भोजपुरी फ़िल्में लगाने वाले सिनेमाघर नहीं बदले.

बिहार की राजधानी पटना को छोड़ एक भी शहर नहीं है, जहां मल्टीप्लेक्स संस्कृति आई है. सारे शहरों में वही पुराने ढर्रे पर सिनेमाघर चलाये जा रहे  हैं. जबकि समय के साथ इनको बदलने की जरूरत है. इनके पुनर्निर्माण की जरूरत है. परिसर में सिनेमाघर के साथ साथ बाजार; खाने पीने से लेकर अन्य प्रकार की दुकानों को शामिल करने की जरूरत है, ताकि उनको इन्वेस्टमेंट का अधिकतम मुनाफ़ा मिले. सीटों की संख्या भी दो ढाई सौ से अधिक न हो. परिसर साफ़ सुथरा हो, यूरिनल्स मेंटेंड हों, बदबू न आये. फिर देखिये दर्शक कैसे नहीं आते हैं.

जब इन सिनेमाघरों की स्थिति बदलेगी, तो तय है कि भोजपुरी सिनेमा भी बदलेगा. चालू फिल्मों के साथ साथ अच्छी और सेंसिबल फिल्में भी बननी शुरू हो जायेंगी. टिकटों के दाम ज्यादा रहेंगे, तो भी दर्शक आयेंगे और कम दर्शकों में भी सिनेमाघर भरा भरा दिखेगा.

मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर न्यूनतम 8 दर्शक के होने पर भी फिल्म दिखाते हैं , जबकि एकल सिनेमाघर आधे से कम होते ही फिल्म उतार देते हैं.

इसलिए भोजपुरी फिल्मों की स्थिति या बिहार की अन्य बोलियों में फिल्मों को बढ़ावा देना है, तो एकल सिनेमाघरों की जगह मल्टीप्लेक्स कल्चर को बढ़ावा देना होगा.

इस दिशा में बेहतरी लानी है तो सरकार को पहल करने की जरूरत है. लेकिन दुर्भाग्य है कि देश की राजनीति में अव्वल रहने वाली बिहार, झारखंड और उत्तरप्रदेश की सरकारें सिनेमा को बाई जी का नाच से आगे कुछ नहीं समझती. भागवत कथा, क्लासिकल नृत्य और संगीत के कार्यक्रम करवा देना और नाटक मंडलियों को खैरात की राशि बाँट देना ही उनके अनुसार कला संस्कृति को बढ़ावा देना है. दिमाग से बीमार तीनों प्रदेशों की सरकारें सिनेमाघरों से करोड़ों रुपये का इन्टरटेन्मेंट टैक्स तो वसूलती हैं, लेकिन सिनेमा के लोगों को बदले में उपेक्षा ही देती है. यह बिहार, झारखंड और उत्तरप्रदेश के आवाम का दुर्भाग्य है.

फिलहाल झारखंड की सरकार फ़िल्में बनाने के लिए सब्सिडी दे रही है, लेकिन उसका मकसद सिनेमा को बढ़ावा देना नहीं बल्कि पर्यटन उद्योग को बढ़ावा देना है. और वह भी अंधा बांटे रेवड़ी चीन्ह-चीन्ह के दे, की तर्ज पर. (लेखक-धनंजय कुमार फिल्म डायरेक्टर व फिल्म–लेखक हैं यह लेख उनके फेसबुक पोस्ट से साभार)

 

LEAVE A REPLY