के. विक्रम राव.
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन की हीरक जयंती अगले वर्ष होगी। टूटी थी 11 अप्रैल 1964, शनिवार के दिन। कल 59वीं वार्षिकी थी। गत दौर में राजनीतिज्ञ, इतिहासवेत्ता, समाजशास्त्री शोध करते रहे कि इसके कारण क्या थे ? निदान हुआ ? निवारण क्या संभव नहीं था ? एक सदी पुरानी पार्टी राष्ट्रीय कांग्रेस की यह सबसे बड़ी प्रतिस्पर्धी थी, सत्ता की होड़ में मुख्य हरीफ। उसकी दो सागरतटीय प्रदेशों में सरकार बन चुकी है। भारत सरकार में गृह मंत्रालय आदि संभाल चुकी हैं। लोकसभा का अध्यक्ष पद भी। आज तक के अपने सौ साल के कालखंड में कम्युनिस्ट पार्टी ने उतार चढ़ाव कई देखें। फिलहाल साठ साल पुरानी इस टूटन पर हाल ही में हुई घटनाओं के परिवेश में एक विश्लेषण की दरकार है। सामयिक भी।
लेखक- के. विक्रम राव देश के जाने माने पत्रकार एवं पत्रकार संगठन IFWJ के अध्यक्ष हैं
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, जिसकी आयु 102 वर्षों की हो गई है, भी 138 साल वाली कांग्रेस की भांति गत सदी में वैचारिक विखंडन और सैद्धांतिक विचलन के दौर से गुजर चुकी है। स्मरण करें : चीन का पूर्वोत्तर भारत (20 अक्टूबर 1962) पर सशस्त्र हमला। तब जवाहरलाल नेहरू को आशा थी कि विशाल और विश्व का प्रथम कम्युनिस्ट देश सोवियत संघ भारत का साथ देगा। ऐसा नहीं हुआ, हालांकि कोमिंटर्न (अंतर्राष्ट्रीय कम्युनिस्ट संगठन) के चीन और रूस सदस्य रहे। तब निकिता ख्रुश्चेव ने नेहरू को बता दिया कि भारत रूस का मित्र है। पर लाल चीन तो भाई है। बात समाप्त हो गई। मगर किस्सा यहीं से शुरू हुआ। इन दोनों विकराल कम्युनिस्ट गणराज्यों में भी पारस्परिक विषमतायें बढ़ती रहीं थी।
माओ जेडोंग खुद का वर्चस्व चाहते थे। नतीजन विश्व कम्युनिस्ट दल ही खेमों में बट गया। भाकपा भी चीन और रूस की अनुयायी बनकर टूटने की कगार पर 1964 में आ गई थी। तभी केरल के मुख्यमंत्री रहे ईएमएस नंबूदिरीपाद से एक रिपोर्टर ने पूछा कि चीनी आक्रमण पर आपकी क्या राय है ? उनका उत्तर बड़ा प्रतीकात्मक था, सूचक भी। वे बोले : “भारत कहता है कि चीन ने सीमा पर आक्रमण किया है। चीन कहता है कि अतिक्रमण पहले भारत ने किया। अतः हम पड़ताल करेंगे कि वास्तविकता क्या है ?” माकपा के तयशुदा विभाजन का प्रस्थान बिंदु यहीं था। बात बिगड़ी जब केरल में भाकपा नेताओं को कैद कर लिया गया। तब जेल में ही वीएस अच्युतानंदन ने सुझाया कि सीमा पर आहत भारतीय जवानों हेतु रक्तदान शिविर का आयोजन हो। उन पर पार्टी-विरोधी हरकतों के लिए अनुशासनात्मक कार्यवाही की गई।
नजारा स्पष्ट हो गया था कि चीन और रूस के खेमों में माकपा पूर्णतया बट गई है। लेकिन इस अलगाव की प्रक्रिया में एक बड़ी ऐतिहासिक घटना की भी किरदारी रही। वह था माकपा के शीर्ष नेता एसए डांगे द्वारा ब्रिटिश सरकार को कानपुर जेल से लिखा गया माफीनामा (24 मई 1924)। यह पत्र नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में सुरक्षित रखे है। इसमें डांगे ने कानपुर के जिलाधीश को ज्ञापन भेजा लिखा था कि “वे ब्रिटिश सम्राट के आज्ञाकारी हैं। कोई राज्यविरोधी अपराध नहीं करेंगे।” अगले अनुच्छेद में डांगे ने घिघियाते, समर्थन देते कहा कि : “जेल की यह यातना असहय हो गई है। अतः हमे मुक्त कर दीजिए। सम्राट महोदय, हम आपके अत्यंत आभारी रहेंगे।” बंबई की अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका (डीएफ कराका द्वारा संपादित) “करंट” ने 1964 के अपने अंक में इसे प्रकाशित किया था। नई दिल्ली के केंद्रीय म्यूजियम में मूलप्रति है। ब्रिटिश सम्राट के संबोधन में डांगे ने लिखा था : “महामहिम, (ब्रिटिश) सम्राट महोदय” तथा हस्ताक्षर के अंत में लिखा था : “आपके अत्यंत आज्ञाकारी नौकर (श्रीपाद अमृत डांगे : कानपुर जेल)।”
ज्ञापन लंदन भिजवाने के बाद, डांगे ने नई दिल्ली-स्थित गवर्नर-जनरल लॉर्ड डेनियल इसाक रीडिंग को भी एक याचना पत्र भेजा था कि उन्हें बोल्शेविक (कम्युनिस्ट विद्रोह वाले) षड्यंत्र मे भी उन्हे क्षमादान दे दिया जाए। अंडमानरूपी नरक की कालकोठरी में वर्षों तक एकांकी नजरबंद रखे गये वीडी सावरकर की तुलना में तो डांगे महाशय कानपुर जेल के बैरकों में काफी सुविधा के साथ रखे गए थे। नियमित समय पर सामूहिक जलपान और भोजन, समाचारपत्र आदि तो उपलब्ध होते ही रहते थे। भेंटकर्ताओं को भी अनुमति थी आने की। डांगे के समर्थन में भाकपा की सांसद रेणु चक्रवर्ती तथा इंदौर के होमी दाजी खड़े थे। रेणुजी के पति थे निखिल चक्रवर्ती जो साप्ताहिक “मेनस्ट्रीम” के संपादक रहे। साथ में थे भूपेश गुप्त, जेडए अहमद (बाद में समाजवादी पार्टी में गये)। मगर अधिकांश कम्युनिस्ट नेताओं तथा कार्यकर्ताओं ने डांगे को निष्कासित करने की मांग की। आखिर में भाकपा का दो फाड़ हो ही गया। चुनाव आयोग ने एक को भाकपा तथा दूसरे को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) नाम दे दिया। माकपा के पुरोधाओं में ईएमएस नंबूदिरीपाद, हरीकिशन सिंह सुरजीत, एके गोपालन, ज्योति बसु, पी. सुन्दरय्या, सीताराम येचूरी, प्रकाश करात आदि। उस समय अंग्रेजी साप्ताहिक “दि थाट” ने माकपा को चिकोरु (चीनी कम्युनिस्ट) और रकोस (रूसी कम्युनिस्ट) लिखा था।
पार्टी टूटने के कुछ ही वर्षों बाद फिर संकट आया जिसमें दोनों कम्युनिस्ट घटकों में वैचारिक विषमता की तीव्रता बढ़ी। इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री पद पर प्रतिकूल अदालती फैसला आने के बाद भी पद बने रहने का निर्णय किया। तब मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी तो इंदिरा के विरोधी रहे। पर डांगेवादी कम्युनिस्टों ने कांग्रेस की मदद की। उनके पदाधिकारियों का कार्य था कि कांग्रेस-विरोधियों पर मुखबरी करो, पुलिस थानों में सूचना पहुंचाओ तथा इंदिरा गांधी सरकार के समर्थन में लोगों को जुटाओ। लगातार कई गलत कदमों के बाद भाकपा नेतृत्व ने 2015 में स्वीकार किया कि आपातकाल का समर्थन करना एक राजनीतिक भूल थी।
बदलती परिस्थितियों का ख्याल कर इन कम्युनिस्टों के दोनों धड़े अब सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन में शामिल हैं। वे सब प्राणपण से नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन को उखाड़ने में एकजुट हैं। प्रश्न है कि कम्युनिस्ट आंदोलन क्या कभी एक सूत्र में बंधेगा ? समय के गर्भ में जवाब है।