नगर विकास व आवास विभाग को बर्बाद करने की गहरी साजिश

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योगेंद्र त्रिपाठी.

पटना.यद्यपि विगत 150 वर्षो से कुछेक नगरों में नगर विकास विभाग कार्यरत है। भले ही ग्रामीण क्षेत्रों को उन्होंने जिला प्रशासन के नियंत्रण में रखा है। किंतु शहरी क्षेत्रों को एक स्वायत्तशासी निकाय बनाकर उसके स्थानीय कार्यों में कभी दखल नहीं दिया। नगर निकाय सब दिन स्वायत्तशासी निकाय रहा है। पहले तो यह बंगाल म्युनिसिपल एक्ट 1885 से शासित होता था। बाद में बंगाल बंटवारे के साथ यह बिहार एवं उड़ीसा म्युनिसिपल एक्ट 1922 से शासित होने लगा। विधि व्यवस्था को छोड़कर कभी भी जिला पदाधिकारी को इसके किसी कार्य में अड़चन लगाने का अधिकार नहीं था। यह बिहार एंड उड़ीसा नगरपालिका अधिनियम 1922 को अगर किसी पदाधिकारी ने अगर पढ़ा है तो उन्हें इसका साफ ज्ञान होना चाहिए।  विगत 1936 में उड़ीसा बिहार से अलग हुआ तथा उसने काफी दिनों के बाद अपना स्वयं का अधिनियम का निर्माण किया।

स्थिति निहायत सुचारू रूप से चल रहा था। कहीं कोई दिक्कत नहीं थी। विगत 1992 में भारतीय संसद में नगर निकायों को नगर सरकार के रूप में विशेष अधिकार देने हेतु एक विधेयक लाया गया किंतु तब तक लोकसभा भंग हो गई। पुन चुनाव हुआ तथा एक नगरपालिका संशोधन विधेयक 1994 में पारित हुआ। इस संशोधन में नगरपालिकाएं जो संविधान के अनुसार 246 अंतर्गत स्टेट लिस्ट में था, उसे राज्यों के प्रतिरोध को ध्यान में रखकर अनुच्छेद 246 से तो नहीं हटाया गया किंतु एक दूसरा रास्ता निकाल कर उसे संविधान के अनुच्छेद 253 W अंतर्गत एक अलग 12विं शेड्यूल में रख दिया गया जिसमें नगर पालिकाओं के 18 कार्य राज्य सूची से अलग कर नगर पालिकाओं के पूर्ण नियंत्रण में रख दिए गए जिस पर राज्य सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहा।

इसके साथ केंद्र सरकार का  एक निदेश प्राप्त हुआ कि राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों के नगर पालिका अधिनियमों एवं नगर निगम अधिनियमों में जहां-जहां संविधान के अनुच्छेद 243 G के अनुसार प्रावधानित 12 वीं शेड्यूल के विषयों को तुरंत समाहित कर ले। संयोगवश तब तक मै प्रमोशन पाकर कार्मिक एवं प्रशासनिक विभाग के सेक्शन 1 एवं सेक्शन 1 B जो भारतीय प्रशासनिक सेवा के पदाधिकारियों का कैडर कंट्रोल, ट्रांसफर, एलिगेशन तथा प्रोन्नति का प्रभारी हो गया था। तत्कालीन आयुक्त एवं सचिव, नगर विकास एवं आवास विभाग ने तत्कालीन प्रधान सचिव, कार्मिक एवं प्रशासनिक विभाग से अनुरोध किया कि नगर विकास एवं आवास विभाग में एकमात्र पदाधिकारी भश्री त्रिपाठी थे जो 74 वें संशोधन को बिहार एवं उड़ीसा नगर पालिका अधिनियम 1922 तथा पटना नगर निगम अधिनियम 1951 में यथा स्थान 12वीं शेड्यूल के विषयों को प्रतिस्थापित कर सकते थे। किंतु दुर्भाग्यवश उनका ट्रांसफर कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभाग में हो गया है। कृपया उन्हें नगर विकास एवं आवास विभाग में लौटाने की कृपा की जाए।

प्रधान सचिव, कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभाग ने साफ-साफ नकार दिया कि इतने मेहनती एवं सक्षम पदाधिकारी को नगर विकास एवं आवास विभाग को पुन नहीं लौटाया जा सकता है। बार-बार अनुरोध का जब कोई असर नहीं हुआ तो प्रधान सचिव, नगर विकास एवं आवास विभाग ने तत्कालीन मुख्य सचिव से आग्रह किया कि श्री त्रिपाठी को निश्चित रूप से कुछ काल के लिए ही सही नगर विकास एवं आवास विभाग को लौटा दिया जाए अन्यथा नगर विकास एवं आवास विभाग के लिए संवैधानिक अवहेलना की समस्या पैदा हो जाएगी क्योंकि भारत सरकार का यह निर्देश है कि 12 वीं शेड्यूल को हर हालत में 2 महीने के अंदर वर्तमान अधिनियमों में यथा स्थान प्रतिस्थापित कर  उसकी सूचना भारत सरकार को दी जाए।

अंतत्त तत्कालीन मुख्य सचिव राजी हो गए। किंतु उन्होंने एक शर्त लगा दी कि अपराह्न 4:00 बजे तक श्री त्रिपाठी कार्मिक एवं प्रशासनिक सुधार विभाग में कार्य करेंगे और उसके बाद नगर विकास एवं आवास विभाग का कार्य करेंगे। मुख्य सचिव के पहल पर एक कमेटी बनी जिसमें नगर विकास एवं आवास विभाग के प्रधान सचिव श्री सुब्रमण्यम,  विधि सचिव श्री राजेंद्र प्रसाद, उप विधि सचिव श्री यादव और श्री त्रिपाठी को मनोनीत किया गया। कमेटी ने चिड़ियाघर में बने गेस्ट हाउस में 4:00 बजे शाम के बाद लगभग 3:00 बजे रात तक कार्य करना प्रारंभ किया। यह काफी सोच विचार कर किया जाने वाला अत्यंत दुरूह कार्य था। किंतु अथक परिश्रम से लगभग निर्धारित समय में पूरा हो गया। उसके बाद उसके अध्यादेश को तैयार करने तथा तत्कालीन राज्यपाल महामहिम कुरैशी से स्वीकृति प्रदान करने का भार मुझे सौंपा गया। फिर उसे बिल के रूप में विधानमंडल में भेजने का भार भी मुझे सौंपा गया। बिल विधान बिहार विधान मंडल से पारित हो गया। तत्पश्चात उस पर महामहिम राज्यपाल श्री कुरैशी से सहमति प्राप्त करने का भार प्रधान सचिव श्री सुब्रमण्यम एवं मुझे सौंपा गया। महामहिम उस समय मध्यप्रदेश के प्रभार में भी थे। उन्होंने स्पष्ट कहा कि बिल को मैं भोपाल लिए जाता हूं। लौटने पर विधिवत सहमति प्रदान करूंगा। एक सप्ताह में वे भोपाल से लौटे। मैंने राजभवन से संपर्क स्थापित किया तो मालूम हुआ कि उस पर महामहिम की सहमति प्राप्त हो गई। तदनुसार यह संशोधित एक्ट अपने रूप में आया और लागू हुआ।

इसी बीच जवाहरलाल अर्बन रिन्यूअल मिशन प्रत्येक राज्य को भेजा गया। बिहार सरकार ने वर्षों तक इस पर कोई कार्य नहीं किया। भारत सरकार ने फोर्ड फाउंडेशन की मदद से एक मॉडल एक्ट बनाकर राज्यों को भेजने हेतु निर्णय लिया जिसके अनुसार इस मॉडल एक्ट के प्रावधान को प्रत्येक राज्यों में लागू अपने अलग अलग अधिनियमों में तुरंत समाहित करने को निदेश दिया अन्यथा जवाहरलाल नेहरू अर्बन रिन्यूएबल मिशन की राशि राज्यों को नहीं मिलेगी।

बिहार इस मॉडल एक्ट को लेकर, जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि वर्षों तक बैठा रहा। कारण विभाग में इस कार्य को करने वाला कोई नहीं था और पदाधिकारियों में इस के लिए किसी प्रकार की उत्सुकता भी नहीं थी। अत केंद्र के दबाव पर विभाग ने अपने स्वयं न कर किसी कंसलटेंट को ड्राफ्ट बनाने हेतु सौंप दिया। कंसलटेंट को पैसा कमाना था। फलत उसमें बिहार एवं उड़ीसा म्युनिसिपल एक्ट 1922, पटना म्युनिसिपल कारपोरेशन 1951, बिहार रीजनल डेवलपमेंट अथॉरिटी एक्ट 1981, बिहार टाउन प्लानिंग एंड इंप्रूवमेंट एक्ट 1951 तथा बिहार रिस्ट्रिक्शन ऑफ उजेज ऑफ लैंड एक्ट 1948 को बिना सोचे समझे निर्षित कर एक अत्यधिक कंट्रोवर्शियल एक्ट का प्रारूप तैयार कर दिया जिसमें इन पुराने एक्ट के किसी अच्छाई को स्थान नहीं दिया गया जबकि यह नितांत आवश्यक था क्योंकि पुराने एक्ट में ब्रिटिश सरकार  द्वारा भी स्थानीय निकायों को पूर्ण स्वायतता प्रदान की गई थी।

सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि कंसल्टेंट द्वारा निर्मित इस बिहार मुनिसिपल एक्ट 2007 के प्रस्तावना में संविधान के 74 वें संशोधन के अनुसार आम जनता की सहभागिता, सत्ता का विकेंद्रीकरण, स्वायतता का प्रोविजन उसी प्रकार उद्धृत कर दिया गया। किंतु पूरे एक्ट के भीतर हर सेक्शन में परंतुक जोड़ दिया गया कि सरकार की पूर्वानुमति अनिवार्य है। फलत न  शहरी निकायों की सहभागिता रह गई, न सत्ता का विकेंद्रीकरण हुआ और न सैकड़ों साल से आ रही निकायों की स्वायत्त ही कायम रह सकी।

सरकारी पदाधिकारी आज संविधान अधिनियम नियम  एवं रेगुलेशन को बिना पढ़े लिखे स्वप्प्रेरणा से नगर निकाय जैसी संवैधानिक स्वायत्तशासी निकाय पर अपना नौकरशाही चला रहे हैं। न तो माननीय विभागीय मंत्री का इस पर ध्यान है, न माननीय मुख्यमंत्री का ध्यान है और  राज्य के मुखिया होने के नाते न ही महामहिम राज्यपाल का ध्यान है।

निश्चय ही राज्य के लिए इन नवसिखुए विभागीय पदाधिकारियों को पूर्णत जिम्मेदार ठहराया जा सकता है क्योंकि के एन सहाय पर्यावरण एवं शहरी विकास संस्थान तथा संयोजक, बिहार शहरी स्थानीय निकायों के राज्य परिषद द्वारा भेजे गए सैकड़ों ही नहीं हजारों पत्रों पर वर्षों से कुंडली मारकर बैठे हैं या उन्होंने जानबूझकर इन सुझाव पत्रों को वेस्ट पेपर बास्केट में फेंक दिया है। जबकि उन तमाम पत्रों की प्राप्ति रसीद इस संस्थान के बाद सुरक्षित रखी हुई है।

विभागीय मंत्री को इन पत्रों को ढूंढवाकर उसके अनुसार कार्रवाई करनी चाहिए तथा उसे रद्दी की टुकड़ी में फेंक देनेवाले कर्मचा रियों एवं पदाधिकारियों पर कड़ी से कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। अच्छा तो तब होता कि इन कर्मचारियों एवं पदाधिकारियों को विभाग से तुरंत हटा कर उनके विरुद्ध जांच बैठाई जाती तथा उन्हें यथायोग्य सजा दिया जाता। किंतु काश विभागीय पदाधिकारियों के चंगुल से निकल विभाग निकाल पाता, तभी तो विभागीय मंत्री या माननीय मुख्यमंत्री इस पर कार्रवाई कर पाते।(लेखक- योगेंद्र त्रिपाठी,भारतीय लोक प्रशासन संस्थान के आजीवन सदस्य व केएन सहाय पर्यावरण एवं शहरी विकास संस्थान के निदेशक हैं)

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