नवीन कुमार मिश्र.
मास्टर साहब शर्मा जी की एक लाइन मेरे दिमाग में हमेशा कौंधती रहती है। जब तक अंग्रेजी में सपने देखना शुरू नहीं किया वास्तव में अंग्रेजी नहीं सीखी। बदलते हुए घरों के बीच अब भी मैं सपने देखता हूं तो बचपन में गुजारे उसी मिट्टी के खपड़पोश मकान की तस्वीर ही दिखाई पड़ती है। वह घर क्या पूरी विरासत थी, इतिहास था (समय के बदलाव के साथ अब पक्का मकान है)। यादों के पन्ने पलटता हूं तो अनगिनत बातें याद आती हैं। रेल की पटरी पर दौड़ती ट्रेन और ओझल होते डिब्बे की तरह। कुछ पिताजी से सुनी स्मृतियां, पुरानी किताबें, संदर्भ ग्रंथ से निकली अनेक बातें। एक दिन पहले ही पिताजी पंडित रामजी मिश्र मनोहर की तिथि थी। पितृ पक्ष के बहाने लगा अपने पत्रकारिता के और भी पितरों को याद कर लूं। खत्म होते विरासती घर, भवन भी किसी पितर से कम थोड़े ही हैं।
पूर्वी पटना में सिर्फ मेरी ही यादों का घर नहीं और भी बहुत सारे पुराने मकान थे, हैं, जिनके पीछे महत्वपूर्ण इतिहास छिपा है। ये राजनीति, साहित्य, कला, संगीत, आध्यात्म और साधना के केंद्र रहे। जिनके दिलों में इनके अपना होने का एहसास होगा, नजरों से गुजरते हुए या ऐसे मकानों के जीने चढ़ते हुए, पढ़ते हुए, अजीब सी टीस का एहसास होगा। कुछ इमारतें अभी भी ठीक-ठाक हैं तो कुछ बहुत बदहाल तो कुछ सिर्फ यादों में। नई पीढ़ी के लिए तो किस्से, कहानियों की तरह। ऐसे तामीरों में झाउगंज में गंगा के किनारे मदरसा, दीवान बहादुर राधाकृष्ण जालान का किला, महाराजघाट का राजा राम नारायण ‘मौजूं’ का किला, गुलजारबाग कें महाराज भूप सिंह का बैठका, हीरानंद शाह की गली स्थित जगत सेठ हीरानंद शाह की कोठी (बिक, टूटकर नये भवन में तब्दील), स्वर्गीय राय साहब पंडित बाल गोविन्द मालवीय का निवास और मंदिर, अपने समय में लोगों के दिलों पर राज करने वाली गायिका अल्ला जिलाई का चौक स्थित रंगशाला (जमीन अब एक धार्मिक परिसर का हिस्सा), महाराज बेतिया और टेकारी महाराज की कोठी, ख्यात तबला वादक स्वर्गीय उल्फत राय का दीवान मुहल्ला का निवास, संगीत और चाक्षुष कला का केंद्र स्वर्गीय राय सुल्तान बहादुर का मकान, हाजीगंज स्थित गजलों के बादशाह शाद अजीमाबादी की जन्मस्थली कर्म भूमि मजार, गायघाट स्थित ब्रजभाषा के सुप्रसिद्ध कवि स्वर्गीय राधा लाल गोस्वामी का निवास-संग्रहालय, लल्लू बाबू का कूंजा स्थित गोवर्द्धन लाल गोस्वामी जी का मंदिर, धवलपुरा स्थित राय जयकृष्ण की कोठी, नवाब सरफराज हुसैन की कोठी, मीतनघाट स्थित राय ब्रजराज कृष्ण का आनंद बाग (मैंने गंजी पहले हुए यहां नेहरूजी की तस्वीर देखी है) और भी ऐसे कई और पहचान और गर्व के केंद्र रहे।
इसी में कालीस्थान स्थित मुहल्ला जो अब डॉ विश्वेश्वर दत्त मिश्र रोड के नाम से प्रसिद्ध है, में एक खपड़ेपोश मकान था, मेरे सपनों वाला घर। जो, कोई डेढ़ सौ साल से अधिक से साहित्य, राजनीति, पत्रकारिता, समाज सेवा और आध्यात्मिक साधना का केंद्र रहा। बिहार के हिंदी पत्रकारिता के विकास के इतिहास के साथ इस घर का भी इतिहास जुड़ा रहा। छठी पीढ़ी के सदस्य भी साहित्य एवं पत्रकारिता से जुड़े हैं। पंडित राम लाल मिश्र (हमारे पिताजी स्वर्गीय रामजी मिश्र मनोहर के परदादा), कालाकांकर, उत्तर प्रदेश के राजा रामपाल सिंह द्वारा प्रकाशित हिंदी के सर्वप्रथम दैनिक समाचार पत्र ”हिन्दोस्थान” के सह संपादक थे। कालीस्थान का यह मकान उनका निवास स्थान था। पंडित राम लाल मिश्र मूलत: कोईलवर के निवासी थे और अपने समय के संस्कृत एवं दर्शन के विद्वान थे। सन् 1862-63 में पटना कॉलेज की स्थापना होने पर अंग्रेजों ने इनकी विद्वता से प्रभावित होकर इन्हें संस्कृत और दर्शन का प्राध्यापक नियुक्त किया।
करीब दस साल की सेवा के बाद कॉलेज के तत्कालीन अंग्रेज प्राचार्य ने आदेश जारी किया कि सभी प्राध्यापकों को अंग्रेजी लिवास में फोटो खिंचाना होगा। बगलबंदी, धोती और कपड़े का जूता पहनने वाले पंडित रामलाल मिश्र को यह बात रास नहीं आयी। उन्होंने इसे ”मैकाले के बेटों” द्वारा भारतीय वेशभूषा एवं संस्कृति पर आधात का एहसास किया। अपने प्राचार्य को स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि किसी भी शर्त पर यह आदेश उन्हें स्वीकार्य नहीं। और विरोध में तत्काल अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उस समय अंग्रेजी शासन और कॉलेज के अंग्रेज प्रिंसिपल का बड़ा दबदबा था। उनके किसी आदेश की अवहेलना राजद्रोह की तरह था। मगर वे इसकी परवाह किये बिना चल दिये।
बिहार के पहले हिंदी साप्ताहिक ”बिहार बंधु” की बात करें तो 1873 के दौरान कोलकाता से प्रकाशन शुरू हुआ और अगले साल यानी 1874 में पटना चला आया। आज के पटना कॉलेज के सामने के परिसर में। इसके संचालक-संपादक पंडित मदन मोहन भट्ट और पंडित केशव राम भट्ट थे जो पंडित रामलाल मिश्र के बड़े करीबी मित्र थे। अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल बजाना, बिहार के लोगों में नागरिक चेतना जागृत करना, अदालतों में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि को प्रतिष्ठित करना मकसद था। भट्ट बंधुओं को पंडित रामलाल मिश्र के तेवर की जानकारी मिली तो उन्हें भी अपने मिशन में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। तब रामलाल मिश्र भी इसके संपादक मंडल में शामिल हो गये। कई वर्षों तक जुड़े रहे। कालांतर में एक नवंबर 1885 को उत्तर प्रदेश के कालाकांकर से हिंदी के पहले दैनिक समाचार पत्र ” हिन्दोस्थान ” का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय इसके संपादक नियुक्त हुए। इसके संपादक मंडल के लिए विभिन्न राज्यों के विद्वान संपादक की तलाश थी। उसी कड़ी में बिहार में उनकी नजर पंडित रामलाल मिश्र पर पड़ी। मालवीय जी के आमंत्रण के बाद पंडित रामलाल मिश्र इसके सहायक संपादक हुए।
इसी तरह बंगाल के पंडित अमृतलाल चक्रवर्ती, उत्तर प्रदेश से पंडित रामनारायण मिश्र, हरियाणा से बाबू बालमुकुन्द गुप्त आदि इसके संपादक मंडल में शामिल हुए। पंडित रामलाल मिश्र ने हिन्दोस्थान के सह संपादक का काम करने के बाद इसके व्यवस्थापक का भी काम संभाला। ख्यात पत्रकार मदन गोपाल जी ने अपनी पुस्तक में इसकी चर्चा की है। पंडित रामलाल मिश्र के बड़े पुत्र सत्यरूप मिश्र बिहार के शिक्षा विभाग में अधिकारी नियुक्त हुए और बिहार बंधु से जुड़े रहे। देवनागरी को प्रतिष्ठित करने वाले शिक्षा अधिकारी भूदेव मुखर्जी के अनन्य सहयोगी एवं जिला स्कूल इंस्पेक्टर थे। पटनासिटी गवर्नमेंट हाई स्कूल के प्राचार्य भी रहे। उनके दूसरे पुत्र पंडित विश्वरूप मिश्र पटना के टेम्पुल मेडिकल स्कूल जो अब पटना मेडिकल कॉलेज है, में अंग्रेजी डॉक्टरी की शिक्षा प्राप्त की और अपने समय के ख्यात चिकित्सक रहे। वे संस्कृत, हिदी, उर्दू, अंग्रेजी, गुजराती और बंगला आदि भाषाओं के अच्छे जानकार और वेदान्त के मर्मज्ञ थे।
सन्यास ग्रहण करने के बाद वे स्वामी विश्वरूपानंद के नाम से ख्यात हुए। कालीस्थान स्थित अपने निवास पर ही वेदान्त की कथा कहते जिसमें बड़ी संख्या में शहर के लोग रोज कथा सुनने आते। वे आगरा से प्रकाशित ” वेदान्त केसरी” और मुंबई से प्रकाशित वेंकटेश्वर समाचार में बहुत दिनों तक सहायक संपादक रहे। कई आध्यात्मिक पुस्तकें भी लिखीं। जिनकी प्रतियां आज भी सुरक्षित हैं। उन्होंने हिंदी में दस-बारह खंडों में स्व-अनुभवानंद लहरी नामक ग्रंथ की रचना की जिसकी प्रतियां बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के पांडुलिपि विभाग में हाल तक सुरक्षित थीं। खुद पंडित रामलाल मिश्र ने भी कई किताबें लिखीं मगर सिर्फ ” भक्ति मीमांसा ” नामक संस्कृत पुस्तक की पांडुलिपि ही आज सुरक्षित हैं।
डॉक्टर विश्वेश्वर दत्त मिश्र (हमारे दादाजी) पंडित रामलाल मिश्र के ज्येष्ठ पौत्र थे जिन्होंने चिकित्सा वृत्ति अपनाने के साथ ही स्वतंत्रता आंदोलन, समाज सेवा तथा राष्ट्रभाषा हिंदी की सेवा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। देशरत्न डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर अनुग्रह नारायण सिंह, आचार्य बद्रीनाथ वर्मा, जगत नारायण लाल, शत्रुघ्न शरण सिंह आदि के करीबी मित्र थे। डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने अपना राजनीतिक जीवन पटनासिटी से ही आरंभ किया था। उन्होंने सन् 1920 में यहीं से ”प्रजाबंधु ” नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन शुरू किया था। इसके लिए प्रजाबंधु-लिमिटेड नामक कंपनी की स्थापना की गई। दादा जी यानी डॉ विश्वेश्वर दत्त मिश्र इसके प्रबंध निदेशक हुए और कालीस्थान स्थित निवास स्थान पर ही इसके कार्यालय की स्थापना हुई। प्रजाबंधु के संपादक अपने समय के सुप्रसिद्ध विद्वान एवं पत्रकार पंडित जीवानंद शर्मा (न्यायमूर्ति प्रभाशंकर मिश्र के नाना जी) तथा सहायक संपादक पंडित प्रमोद शरण शर्मा पाठक (मेरे पिता रामजी मिश्र मनोहर के पत्रकार गुरू और मामा) नियुक्त हुए। राजेंद्र बाबू, अनुग्रह बाबू, जगत बाबू, आदि कांग्रेसी नेता सप्ताह में तीन-चार दिन यहीं एकत्र होते।
उस दौर में अखबार निकालना आग से खेलने जैसा जोखिम भरा काम था। देशी भाषा के पत्रों पर अंग्रेजी शासन की कड़ी नजर रहती थी। डॉ विश्वेश्वर दत्त मिश्र का कालीस्थान स्थित आवास जहां प्रजाबंधु का कार्यालय था पुलिस के छापे पड़ने लगे। मैंने अपने पिता जी स्वर्गीय रामजी मिश्र मनोहर से सुना था कि इसके प्रकाशन से जुड़े स्वतंत्रता सेनानी बाबू गोकुल प्रसाद वकील, मुरली प्रसाद अम्बष्ठ, जस्सू लाल गुप्त, झन्नी लाल आदि से इसकी लोमहर्षक कथायें सुनाते थे। पुलिस रेड के कारण प्रजाबंधु का कार्यालय कालीस्थान से नई सड़क और वहां से बांकीपुर स्थानांतरित कर दिया गया था। मगर कुछ ही वर्षों के बाद अंग्रेजी शासन की कड़ी नजर के कारण बंद हो गया। उसकी कुछ फाइलें आज भी हमारे यहां सुरक्षित हैं। बिहार के पहले हिंदी साप्ताहिक बिहार बंधु जिसका प्रकाशन 1915 में बंद हो गया था, बाद में डॉक्टर विश्वेश्वर दत्त मिश्र ने इसका उसी कालीस्थान स्थित आवास से पुनर प्रकाशन आरंभ किया। इसके संपादक प्रमोद शरण शर्मा पाठक थे।
बाद में इसका प्रकाशन प्रमोद शरण शर्मा जी के निवास फतुहा से होने लगा। कई वर्षों तक निकलने के बाद 1923 में बंद हो गया। बाद में डॉक्टर विश्वेश्वर दत्त मिश्र ने अपने आवास से ही मासिक भूदेव का प्रकाशन प्रारंभ किया। इसके संपादक भी प्रमोद शरण पाठक थे। डॉक्टर विश्वेश्वर दत्त मिश्र बिहार में होमियोपैथी चिकित्सा के संस्थापकों में थे। उन्होंने हिंदी में सर्वप्रथम मेटेरिया मेडिका लिखने के अतिरिक्त हिंदी और अंग्रेजी में होमियोपैथी चिकित्सा विज्ञान में आधा दर्जन से अधिक पुस्तकों की रचना की।
कालीस्थान स्थित घर में ही पंडित रामलाल मिश्र के निमंत्रण पर आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद भी आये और इसी मकान के सामने तब मैदान था, में हफ्तों प्रवचन किया। इसके बाद ही 19 वीं शताब्दी के अंतिम दशक में पटनासिटी में आर्यसमाज की स्थापना हुई। झाऊगंज में आज भी आर्य समाज के नाम से यह भवन प्रसिद्ध है। डॉक्टर विश्वेश्वर दत्त मिश्र स्वतंत्रता आंदोलन से भी लगातार जुड़े रहे। पटना में कांग्रेस की स्वर्ण जयंती मनाई गई उसके आयोजन समिति के वे महासचिव बनाये गये थे। लगातार चार दशक तक पटना नगर निगम के वार्ड कमिश्नर रहे। इसी को ध्यान में रखते हुए उनके निधन के बाद उनके निवास स्थान को जाने वाली सड़क का नाम डॉक्टर विश्वेश्वर दत्त रोड रखा गया।
गंगा किनारे चिमनीघाट जाने वाले रास्ते में भी उनके नाम का शिलालेख था जो अब गायब हो गया। 1944 में जेल से छूटने के बाद सरदार भगत सिंह के साथी क्रांतिकारी, कामरेड बटुकेश्वर दत्त इसी मुहल्ले में आकर रहे। जब तक वे यहां रहे, डॉ मिश्र के मकान पर ही पत्र, पत्रिकाओं, उनकी लाइब्रेरी की पुस्तों का अध्ययन, मनन करते रहते। गया के बाबू शत्रुघ्न शरण सिंह, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामावतार शास्त्री आदि अनेक राजनेताओं के राजनीतिक जीवन के प्रारंभिक दिनों में उनकी राजनीतिक, सामाजिक गतिविधियों का भी यह घर केंद्र रहा।
बात पिताजी (रामजी मिश्र मनोहर) की करें तो आज भी समझ में नहीं आता कि सामाजिक सरोकार, पुस्तक लेखन, पत्रारिता से लेकर छह बच्चों और भाई बहनों के परिवार को कैसे संभाला। समझ में नहीं आता कि उनके बारे में क्या लिखूं। लोग उन्हें पटना शहर का चलता फिरता इतिहास कहते थे। छात्र जीवन में ही 1944-45 में हस्तलिखित त्रैमासिक पत्रिका ‘भारती’ का संपादन किया। हिंदी दैनिक आर्यावर्त के सिटी संवाददाता से संपादक तक पहुंचे। राष्ट्रवाणी, विश्वमित्र, प्रदीप, पीटीआइ, नवभारत टाइम्स, आज, सन्मार्ग आदि देश के अनेक पत्रों का प्रतिनिधित्व किया। पत्रकारिता का इतिहास और पटना का इतिहास ‘दास्ताने पाटलिपुत्र’ कई वर्षों तक लगातार मेहनत और लेखन का नतीजा रहे। सिख धर्म पर भी पुस्तिका लिखी, नानक वाणी नामक पत्रिका का भी वर्षों तक प्रकाशन किया। पटना नगर जिला कांग्रेस और बिहार पत्रकार संघ के भी लंबे समय तक सचिव रहे। सिख, जैन और मुस्लिम धर्म और दर्शन से गहरा जुड़ाव रहा। शहर के अनेक सामाजिक संगठनों के पदाधिकारी रहे।
बिहार पत्रकारिता संस्थान एवं संग्रहालय की स्थापना कर दुर्लभ पत्र पत्रिकाओं को संरक्षित किया। उनके चाहने वालों ने पाटलिपुत्र की धरोहर : रामजी मिश्र मनोहर नाम से करीब साढ़े चार सौ पृष्ठों का अभिनंदन ग्रंथ भी प्रकाशित किया। अभी भी इस आवास में हजारों प्राचीन पुस्तकें, पत्रिकाएं, कोई डेढ़ सौ वर्ष तक प्राचीन समाचार पत्रों की फाइलें, अंक, कई सौ साल प्राचीन करीब आठ सौ पांडुलिपियां सुरक्षित हैं। जहां जेएनयू, दिल्ली विवि से भी शोध करने शोधार्थी आते रहे। इसी कड़ी में रंग-कर्म के इतिहास पर पुस्तक लेखन के क्रम में एनएसडी के निदेशक अंकुर जी भी आये थे। बड़े भाई ज्ञानवर्धन मिश्र चार दशक से अधिक से पत्रकारिता से जुड़े रहे। मैं भी तीन दशक से इसी पेशे में हूं। पंकज कुमार मिश्र (पंकज वत्सल) भी पत्रकारिता से लंबे समय तक गहरे जुड़े रहे। आज के दौर में जब पत्रकारिता अपने ही हाथों पर खंजर तेज करने जैसा है भतीजा अमित ने परंपरा को आगे बढ़ाया।