बाढ़ नियंत्रण के बदले अब किया जायेगा बाढ़ प्रबंधन

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दिनेश मिश्रा.

आज़ाद भारत में बिहार में  1948 में आयी पहली बाढ़ पर बहस चल रही थी. तब दीप नारायण सिंह सिंचाई मंत्री थे। उनका कहना था कि अफसरों को पता ही नहीं लगा कि नावों की कमी है। उन्हें यह तक पता नहीं था कि महनार घाट पर व्यापारियों की बहुत सी नावें लगी थीं जिनका वह इस्तेमाल कर सकते थे। अगर वह ऐसा करते तो बहुत सी जानें बचाई जा सकती थीं।

राजस्व मंत्री कृष्ण बल्लभ सहाय का कहना था कि सरकार नदियों के किनारे तटबंध बनाने के हक में नहीं है क्योंकि छपरा में तटबंध बनाये जाने पर पटना पर  उसका असर जाने बिना यह काम नहीं किया जा सकता। तटबंध निर्माण की दूसरी परेशानियां तो अपनी जगह हैं ही। इसी बहस में प्रभुनाथ सिंह ने कहा था कि बाढ़ समस्या का समाधान रिलीफ बांटने से नहीं होगा और उनके यहां लोग इतने स्वाभिमानी हैं कि वह मर जायेंगे पर आपकी रिलीफ नहीं लेंगे। यह सब जब 1948 में कहा जा चुका था तब नाव नहीं है या कम है इसका अंदाज़ा इतने वर्षों में नहीं लगा?

नदी के किनारे बने तटबंधों का असर दूसरी जगहों पर क्या पड़ेगा, इसका बाद की योजनाओं मे कोई अध्ययन हुआ भी था या नहीं या वह सब जबानी जमा-खर्च था?

बाढ़ के जिस नियंत्रण की जगह प्रबंधन की बात की जाती है उसमें तटबंध निर्माण के अलावा और कुछ क्यों नहीं हुआ? वैसे भी प्रबंधन की बात करने वाले इंजीनियर  क्या करना चाहते हैं, कभी विस्तार से नहीं बताते। उस पर अमल करने की बात तो कभी होती ही नहीं है। वह यह भी नहीं बताते कि ऐसा वह अपने रिटायर होने के बाद ही क्यों बताते हैं? जब आपके पास सारी क्षमता थी और आप बहुत कुछ कर सकते थे, तब आपने क्यों वह सब नहीं किया जिसकी वकालत अब कर रहे हैं? यह भी ध्यान देने की बात है कि ब्रिटिश काल के बंगाल के चीफ इंजीनियर विलबर्न इंगलिस ने सम्भवतः पहली बार 1905 में कहा था कि हमें बाढ़ का नियंत्रण नहीं, प्रबंधन के बारे में सोचना चाहिए। उन्होंने भी यह बात रिटायर होने के बाद ही कहीं थीं। हम अभी तक सोच ही रहे हैं।

बाढ़ से बचाव का समाधान चूड़ा, गुड़, सत्तू, मोमबत्ती, दियासलाई या मिट्टी के तेल के वितरण में नहीं है, यह बात सरकार के कब समझ में आयेगी? यह सवाल इसलिये जरूरी है कि अब शायद ही कोई ऐसी पार्टी बची है जिसने बिहार में शासन न किया हो, या तो सीधे या सहयोगी बन कर।इस बार कोई नेता नेपाल में बराहक्षेत्र बांध के निर्माण के बारे में बयान नहीं दे रहा है, यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। (लेखक आईआईटीयन,खड़गपुर और बाढ मुक्ति अभियान के संयोजक रहे हैं)

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