दिनेश मिश्रा.
पटना. जो नदियों और बाढ़ का प्रामाणिक इतिहास मुझे उपलब्ध हुआ उसमें दामोदर और कावेरी की चर्चा मिली। जेम्स रेनेल ने 1779 में गंगा की बाढ़ और उस पर बने तटबंधों का हलका सा ज़िक्र किया है और बाद में फ्रान्सिस बुकानन ने कुछ बात कोसी के तटबंधों के बारे में की है जिसे विलियम हंटर ने आगे बढ़ाया।विलियम विल्कॉक्स ने दामोदर की बाढ़ के बारे में बहुत कुछ लिखा है। इन कृतियों में ज़मींदारी और महाराजी छोटी ऊंचाई के बांधों की चर्चा मिलती है जो ज़्यादा सफल इसलिये थे क्योंकि उनके रख-रखाव का जिम्मा स्थानीय था और उसके लिये संसाधन भी स्थानीय सत्ता स्रोतों से मिलते थे।
अंग्रेज़ों ने शुरू शुरू में बाढ़ सुरक्षा के नाम पर पैसा बनाने की सोची और पूरी तरह से मुंहकी खाई। 1869 में उन्हें दामोदर के तटबंधों को तोड़ना पड़ा और उसके बाद उन्होंने कभी तटबंध नहीं बनाये। उन्हें जब देशज ग्यान का बोध हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी। इस बीच वो ह्वांग हो और मिस्सिस्सिपी के तटबंधो की समस्या का अध्ययन कर चुके थे और उन्हें लगा कि उन्होंने बाढ़ रोकने का काम भूल कर कोई गलती नहीं की।
भारत छोड़ने के पहले उन्होंने बराहक्षेत्र बांध का शोशा छोड़ा और चले गये। 1952 तक पूरा माहौल बराहक्षेत्र के हक और कोसी पर तटबंध के खिलाफ़ बना रहा मगर नेहरू के 1953 की बाढ़ के बाद के एक वाक्य ने “इन लोगों के लिये तुरंत कुछ करना चाहिये” तटबंघों को राजनैतिक मान्यता दे दी। बाद में इंजीनियरों ने अपना खेल खेला और कोसी पर तटबंध बन गये। बहस समाप्त हो गई और 1979 के बाद उसके नफे-नुकसान का मूल्यांकन नहीं हुआ. 1979 का मूल्यांकन योजना आयोग ने किया था और उसमें पाया गया था कि तटबंधों के अन्दर कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई थी जबकि तटबंध के बाहर के बाढ़ सुरक्षित क्षेत्र में इसका उत्पादन घटा था. ऐसा जल-जमाव में वृद्धि के कारण हुआ था. तटबंधों ने बाढ़ से एक हद तक सुरक्षा जरूर दी थी क्योंकि उसद समय तक कोसी का तटबंध केवल नेपाल में डलवा में 1963 में और भटनियाँ (सुपौल) में 1971 में टूटा था.
उसके बाद फिर तटबंधों के बीच रहने वालों और उनके बाहर रहने वालों की किसी भी तकलीफ के बदले रिलीफ देने का प्रचलन बढ़ा और वह भी बहुत से नेताओं के विरोध के बावजूद क्योंकि उनको डर था कि रिलीफ लोगों को सरकार पर आश्रित और अंततः भिखमंगा बनायेगी। बाढ़ के समय कभी TV देखिये तो ये लोग कहीं से एक बूढ़ा आदमी या बूढ़ी औरत पकड़ कर लायेंगे और उसका हाल चाल पूछेंगे। वो कहेगा/गी कि हमको कुछ नहीं मिला । मैंनेे आजतक किसी को यह कहते नहीं सुना है कि जो यह कहे कि उसका सब कुछ चला गया।
इस कथन का मर्म राजनीतिज्ञ समझता है और वो अच्छी तरह जानता है कि अगर किसी बाढ़ पीड़ित को कुछ खैरात मिल जायेगी तो वह चुप हो जायेगा/गी और उसकी राजनीति पर कत्तई कोई आँच नहीं आयेगी।यही वजह थी कि कुसहा त्रासदी के बाद के चुनाव में सत्ताधारी दल कोसी क्षेत्र की सभी सीटों पर चुनाव जीत गया था। यह प्रताप उसी एक क्विंटल गेहूँ और 2200 रुपये का था जिसके साथ और भी बहुत से वायदे किये गये थे जो आज तक पूरे नहीं हुए। पीड़ितों ने रिलीफ देने वालों का एहसान उन्हें वोट देकर चुकाया। वो भूल गये कि उनकी बदहाली की वजह वही लोग थे जिसका एहसान उन्होंने वोट देकर चुकाया था। रिलीफ बांटने की यह नई व्यवस्था वित्त आयोग की सिफारिश पर 2005 से लागू हुई और न जाने कब तक चलेगी।
एक तरफ़ रिलीफ का यह करिश्मा और दूसरी तरफ नेपाल के बराहक्षेत्र मे कोसी पर बांध बनाने का प्रस्ताव जो 1937 से अब तक सुर्खियों में बना हुआ है, के आश्वासनों के बीच फंसी कोसी क्षेत्र की जनता के लिये किसी तीसरे विकल्प को खोजने का प्रयास भी नहीं होता। इस रात की सुबह कब होगी किसी को नहीं पता।
( लेखक आईआईटीयन,खड़गपुर के साथ साथ बाढ-नदियों के जानकार व बाढ मुक्ति अभियान के संयोजक रहे हैं)