बेगूसराय:लेनिनग्राद का भगवाकरण

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प्रमोद दत्त.

पटना.देश के हाईप्रोफाइल सीटों में गिनती हो रहे बिहार के बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र को कभी बिहार का लेनिनग्राद कहा जाता था.अब इस कथित लेनिनग्राद का भगवाकरण हो गया है.पिछले चुनाव में भोला सिंह की जीत ने न सिर्फ इस क्षेत्र में पहली बार कमल खिलाया बल्कि राजद के ठोस वोटबैंक ने भाकपा को तीसरे नंबर पर पहुंचा दिया.यही कारण है कि कथित लेनिनग्राद की वर्तमान हकीकत को समझते लालू प्रसाद भाकपा के लिए सीट छोड़ने के बजाए राजद की दावेदारी से पीछे नहीं हटे.रालोसपा,हम और वीआईपी पार्टी के लिए उदारता दिखाने वाले राजद ने भाकपा की दावेदारी को झटक दिया.

वर्ष 2014 के चुनाव में भाजपा के भोला सिंह को 4,28,227 वोट मिले तो दूसरे नंबर पर रहे राजद के तनवीर हसन को 3,69,892 वोट मिले.राजद ने भाकपा वोटबैंक में जबरदस्त सेंधमारी की.नतीजतन भाकपा के राजेन्द्र प्रसाद सिंह को मात्र 1,92,639 वोट पर संतोष करना पड़ा.

दरअसल,कभी कांग्रेस तो कभी लालू प्रसाद के साथ गठबंधन करने वाली भाकपा को अब इसका खामियाजा भुगतना पड़ रहा है.इमरजेंसी में कांग्रेस का समर्थन करने के झटके से उबरने के बाद भाकपा ने 1990 के बाद लालू प्रसाद का पिछलग्गू बन गई.सांप्रदायिकता के सवाल पर लालू के साथ खड़े होने तक तो ठीक रहा लेकिन जब भ्रष्टाचार का मुद्दा सामने आया तब भी भाकपा लालू की गोद में बैठी रही.मजदूर-किसान के हितों की बात करने वाली भाकपा भी अगड़े-पिछड़े में फंस गई.वोट बैंक खिसकने के भय से लालू-विरोध का हिम्मत नहीं जुटा पाई.लालू प्रसाद के शातिरनामा राजनीति में फंसी भाकपा को तब होश आया जब लालू प्रसाद बड़ी चालाकी से भाकपा के वोटबैंक में सेंधमारी कर चुके थे.इसका सबसे बड़ा उदाहरण बेगूसराय लोकसभा क्षेत्र है जिसकी पहचान पहले बलिया लोकसभा क्षेत्र के नाम से थी.

1990 में भाजपा,भाकपा,माकपा,माले,झामुमो आदि गैरकांग्रेसी दलों के समर्थन पर लालू प्रसाद मुख्यमंत्री बने.मंदिर मुद्दे पर जब भाजपा ने समर्थन वापस लिया तो अपनी अल्पमत की सरकार को चलाने के लिए लालू ने भाजपा का विभाजन करा दिया.इसके बाद जब-जब दूसरे दलों से मतभेद हुआ और सरकार पर खतरा हुआ तब तब लालू ने दलों को तोड़ा.भाकपा,झामुमो,आईपीएफ(माले) और कांग्रेस को तोड़ा.इन पार्टियों के विभाजन में अक्सर पिछड़ावाद का जादू कारगर साबित हुआ.तब बिहार की राजनीति लालू के इर्दगिर्द ही घूमती थी.

इस क्षेत्र से 1991 के चुनाव में भाकपा के सूर्यनारायण  सिंह और 1996 में शत्रुघ्न प्रसाद सिंह को लालू का समर्थन मिला तो दोनों जीत गए.लेकिन 1998 में राजद ने अपना उम्मीदवार राजवंशी महतो को उतरा.महतो की जीत से लालू प्रसाद ने एक तीर से दो निशाना साध लिया.एक भाकपा से सीट छिन ली तो दूसरा भूमिहार बाहुल सीट पर पहली बार पिछड़ी जाति का कब्जा दिलाया.पिछड़े व मुस्लिम जो कभी भाकपा के वोट बैंक थे उसमें लालू प्रसाद ने जबरदस्त सेंधमारी कर दी.इसके बाद 1999,2004 और 2009 में जदयू का कब्जा हुआ जरूर लेकिन राजद मुकाबले में बनी रही.2014 में पहली बार भाजपा का कब्जा हुआ और दूसरे नंबर पर राजद रही.सत्तारूढ जदयू के समर्थन के बावजूद तीसरे नंबर पर भाकपा के उम्मीदवार रहे.

जेएनयू के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के लिए भी भाकपा महागठबंधन से सीट नहीं ले पाई.पिछले चुनाव में जदयू का साथ था तो इस बार भाकपा को कन्हैया की राष्ट्रीय छवि का ही साथ है.कन्हैया के कारण इस सीट को हाईप्रोफाइल बना दिया गया है.देश भर के मीडिया कन्हैया बनाम भाजपा का संधर्ष बताकर राजद को इग्नोर करने की भूल कर रहे हैं.भाजपा के गिरिराज सिंह और भाकपा के कन्हैया कुमार की जो छवि बनी है इस आधार पर इसे अपरोक्ष रूप से कट्टर हिंदू बनाम कश्मीर अलगाववादी समर्थक का संघर्ष बनाया जा रहा है.लेकिन लालू प्रसाद की बनाई रणनीति के अनुसार महागठबंधन ने जो पहलवान उतारे हैं उससे लगभग हर सीटों पर सीधी टक्कर की तस्वीर बन रही है.बेगूसराय जैसी सीटें पर भी दिख रहे त्रिकोणीय संघर्ष में कोई चौकाने वाले नतीजे की उम्मीद नहीं की जा सकती है.

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