डा.मनोज कुमार.
गुलाब की पंखुङियों जैसे होंठ…माथा सितारों से सजा…फूलों की महक… और वीआईपी मेहमानों से जोया का आंगन गुलजार था। सखियां उसे मेंहदी लगाने को उतावली हो रही थी। वह टुकुर-टुकुर पीसते हरे हिना की खासियत पर ध्यानमग्न थी। औरत की जिंदगी भी हिना से क्या कम थोड़े है…दोनो मिटकर रंग लाते है।
वह सोच रही। शादी के बाद लङकी बहु बन जाती है और मेंहदी भी सूखकर किसी की हथेलियों-कलाइयों पर रंग बिखेरती है।हरबार दोनों को ही बलिदान देना पङता है। वह पेड़ से टूटती है तो जोया परिवार से अलग होकर किसी के सपने बुनने जा रही है। त्याग,बलिदान और हक छोड़ना औरत की नियति है।इसी उधेड़बुन में जोया न जाने कब खुद को अतीत के आगोश में ले गयी।
दर्द व नफरत,अनदेखी किए गये उसके जज्बात स्मृति-पटल पर आने लगे।वह अब अपनी मुठ्ठी भींचने लगी।लंबे बालों को खोलने लगी।वह लगातार अचेतन में जा रही थी।उसके सपने अब शादी के बाद टूट जायेंगे।अचानक उसकी आंखे बंद होने लगी। अब वह अतीत के आगोश में थी।
वह लड़की होने के कारण लड़को से बोल नही सकती थी।वह पहली नजर में जिससे प्यार करना चाह रही थी एक हादसे में उसकी मौत को देखा था। वह इसे भूलती तबतक फूफूरे भाई का भी इंतकाल हो गया था।वही भाई जिससे अबतक वह अपनी जज्बातो को शेयर करती रही।वह चाह कर भी अपनी चेतना में वापस नही आना चाह रही थी।उसे लग रहा था की फूफूरे भाई की आत्मा ने उसे अपने वश में कर लिया है।
वह चित्कार मार रोने लगी। मुझे जीना है,मुझे जीने दो।शादी-विवाह वाले घर में जोया की यह चीख ने भीड़ इकट्ठा कर दिया। अब वह अपने बालो को खोलकर गोल-गोल घुमाकर खेलने लगी। उसकी आवाज भी मरे हुए भाई की आवाज मे तब्दील हो गयी।आंखे लाल-लाल।शरीर पर असहज होते कपड़े। अम्मी के साथ मेहमानों ने काबू करने की कोशिश की। नतीजा सिफर रहा।आयोजन में शामिल लोगों ने बुदबदाना शुरू किया कि इसे हिस्टीरिया है।
जोया अब खेलते-खेलते निढाल होकर पसर गयी।यह सब देख रहे पटना के एक विख्यात समाजसेवी व बिहार के पूर्व मंत्री ने अपने हाथ में रखे एक बेशकीमती सिगरेट को मसल दिया।वह कुछ विचार करते हुए अपनी कार की ओर बढ गए।
दरअसल,यह सभी लक्षण जोया में डिसोसियेटिव डिस्ओडर के थे।पटना में इस समस्या के लिए अभी जोया को इनकी मनोविश्लेषण थेरेपी मेरे द्वारा दी जा रही। इस समस्या से पीड़ित के परिजन अंधविश्वास में पड़कर मरीज के मर्ज को बढा देते है।ज्यादातर लोग हिस्टीरिया को दमित कामुक इच्छाओं की पूर्ति का पर्याय मानते है।आधुनिक समय में यह धारणा बदली है।
यह समस्या बचपन में मिले भावनात्मक असहयोग, उपेझा व आघातपूर्ण घटनाओं के विष से बनता है।परिवार में कई बार तेज तरार लोगों की घोर अनदेखी व अपने दुःखो को अभिव्यक्त न करने की अयोग्यता भी इस समस्या को ट्रिगर करते है।समान्यत: हम इसे भूत-प्रेत,टोटको व न जाने कितने ताबिज से इस समस्या पर काबू करना चाहते है।लेकिन इस समस्या से पीड़ित अपने दुःखों की अभिव्यक्ति शरीर व मन के चित्कार से करने लगता है।जब तक हमारे अंदर इस समस्या के प्रति जागरूकता आती है तबतक यह परिवार के अन्य सदस्यों को भी अपने लक्षण के गिरफ्त में ले चुका होता है।(लेखक डा.मनोज कुमार,पटना में काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट है।इनका संपर्क नं9835498113,8298929114 है।)