अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मंडराते खतरे

2367
0
SHARE

images

डॉ नीतू नवगीत.

गजानंद माधव मुक्तिबोध का जन्म 1917 इसवी में हुआ था, इस तरह वर्ष 2017 मुक्तिबोध का जन्म शताब्दी वर्ष है । स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब जब राजनीति के गहराते संकट के बीच मूल्यों से जुड़े प्रश्न उठे हैं, गजानंद माधव मुक्तिबोध पहले से अधिक प्रासंगिक होकर क्षितिज पटल पर प्रकट हुए हैं । उसमें भी जब कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर  प्रहार हुआ तो मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता अंधेरे में वर्णित तिलस्मी खोह एक खौफनाक शक्ल के साथ दिखाई देता रहा । पूरे विश्व में कट्टरपंथियों के उभार और आतंकवाद के फैलाव के बीच अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मंडरा रहे खतरों के बादल और संघनित हुए हैं । मुक्ति बोध के स्वर में इस खतरे की आहट बार-बार सुनाई देती है  लेकिन यह कहीं दिखाई नहीं देता ।

लेडी श्रीराम कॉलेज की छात्रा और वीरगति प्राप्त सैनिक की बेटी गुरमेहर कौर के मामले में यही खतरा अपनी तमाम विद्रूपताओं के साथ सुनने को मिला । इसके भयानक चेहरे की झांकी भी मिली, जब किसी सिरफिरे ने गुरमेहर को सोशल मीडिया पर बलात्कार करने तक की धमकी दे डाली । अंधेरे में जिन फासीवादी ताकतों की ओर उंगली उठाई गई है, वह ताकतें युद्धलिप्सा में लिपटी हुई हैं । विरोध के स्वर को किसी भी तरह से और किसी भी कीमत पर दबाने में विश्वास रखने वाली ये ताकते वातावरण में फैली हुई बारुदी गंध को काम करना ही नहीं चाहती । तभी तो उन्हें इस बात पर ऐतराज हो जाता है कि बचपन में अपने पिता को होने वाली बच्ची बड़ी होकर यह कैसे कह सकती है कि उसके पिता को पाकिस्तानी फौज ने नहीं बल्कि युद्ध ने मारा है ।

वस्तुतः युद्ध के मैदान में लगने वाले सिपाही दिहाड़ी मजदूर जैसे होते हैं । बंदूक और तोप उनके साथ  दिखते हैं, लेकिन वह उनके साथ होते नहीं है बंदूकों और तोपों पर तो पूंजीवादियों और साम्राज्यवादियों का हुकुम चलता है, जबकि लड़ाई में गिरने वाला खून गरीबों का होता है । इसलिए सारी दुनिया में अमन की ख्वाहिश हर गरीब के दिल में पलती है । बंदूकों से बरसने वाली गोलियां चाहे अफ्रीका के गरीबों का कत्लेआम करें या अरब में रहनेवाले बेगुनाहों का, जीत साम्राज्यवादी-पूंजीवादी मानसिकता की हो रही होती है । इसीलिए साम्राज्यवादी-पूंजीवादी मानसिकता वाले लोग कभी भी युद्ध के खात्मे की बात नहीं करते अपितु अलग-अलग कारणों से जंग के मैदान में भेज दिए गए समूहों के खात्मे की बात करते हैं । गुरमेहर ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों का उपयोग करते हुए कहा कि वह किसी एक समुदाय या देश के खिलाफ नहीं है । बल्कि उस मानसिकता के खिलाफ है जिसमें मनुष्य दूसरे मनुष्य का खून बहाने के लिए उतावला रहता है । यह एक कटु सत्य है कि एक ही सांस्कृतिक और सामाजिक विरासत के साथ लगभग एक ही साथ आजाद होने वाले दो देश कलुषित विचारधारा के साथ सत्ता में बने रहने की ख्वाहिश रखने वाले लोगों की बदनीयती के कारण दुश्मन बने हुए हैं ।  हर साल सैकड़ों सैनिक इस बदनीयती का शिकार होकर अपनी जान गवांते हैं । अमन बहाली के लिए छिटपुट कोशिशें होती हैं । लेकिन अमन के खिलाफ गहरे षड्यंत्र रचे हुए हैं । भारत और पाकिस्तान दोनों ही विश्व में हथियारों के सबसे बड़े आयातकों में से हैं । हथियारों की दुकानदारी करने वाली शक्तियां ऐसा कभी नहीं चाहेंगी कि दोनों मुल्कों के बीच शांति की स्थापना हो जाए और उन्हें अपना कारोबार समेट कर यहां से भागना पड़े । इसलिए ये शक्तियां अंध राष्ट्रभक्ति के बहाने अपने पक्ष में बाजार बनाते रहती हैं । देश की राजनीतिक चेतना अधूरे मन से कहती है कि जंग नहीं अब होने देंगे । लेकिन बाजारवादी ताकतें ऐसा माहौल बना देती हैं  कि जंग होती रहे । यदि जंग ना भी हो तो जंग का माहौल बना रहे और उनकी दुकानदारी चलती रहे ।

एक नागरिक के तौर पर हमें स्वीकार करना होगा कि युद्ध लिप्सा देशभक्ति का पर्याय नहीं है । देशभक्ति एक सकारात्मक विचारधारा है जिसके तहत हम सबको मिलकर अपने देश के विकास को सुनिश्चित करना है । देश की एकता और अखंडता के लिए जो शक्तियां खतरा बनी हुई है, उनकी पहचान कर उन्हें समाप्त करना है ।  जबकि युद्ध लिप्सा हमें युद्ध करने के लिए प्रेरित करती रहती है । रचनात्मक अभिव्यक्ति और संवेदनशीलता का युद्ध पिपासु वातावरण में कोई स्थान नहीं होता जबकि देश भक्ति में रचनात्मक अभिव्यक्ति और हमारी संवेदनशीलता गंभीरतापूर्वक संवाद करते हुए समाधान के नए रास्तों की तलाश करती है ।  यह संवेदनशीलता हमारे आदर्श वादी और सिद्धांत वादी मन से सवाल करते  रहती है-

अब तक क्या किया ?

जीवन क्या जिया

ज्यादा लिया और दिया बहुत बहुत कम

मर गया देश, अरे जीवित रह गए तुम !

सवाल करने की ताकत से लोकतंत्र मजबूत बनता है । अपने से भिन्न विचारधारा रखने वाले लोगों की विचारधारा का सम्मान और विचारधाराओं से परे व्यक्ति का महत्व भी लोकतंत्र के लिए जरूरी है । विकसित राष्ट्र के लिए भविष्योन्मुखी दृष्टि का होना जरूरी है । और जरूरी है साहसपूर्ण स्वर का सम्मान –

*अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे

उठाने ही होंगे

तोड़ने होंगे ही मठ और गढ़ सब

पहुंचना होगा दुर्गम पहाड़ों के उस पार

तब कहीं देखने मिलेंगी हमको

नीली झील की लहरीली थाहें

जिसमें कि प्रतिपल काँपता रहता

अरुण कमल एक

(मुक्तिबोध)

SHARE
Previous articleस्कूलों में नैतिक शिक्षा पर हो विशेष जोर-मधुकर
Next articleमहिलाओं को मिले उचित सम्मान
डॉ नीतू नवगीत लेखन के साथ-साथ संगीत व समाज सेवा में भी अपना योगदान दे रहीं हैं.छात्र जीवन से ही लिखना शुरू किया और यह यात्रा जारी है.इन्होंने सेंट जेवियर कॉलेज(रांची) से स्नातक और लेडी श्रीराम कॉलेज(दिल्ली) से हिन्दी साहित्य से स्नातकोत्तर करने के बाद पुन: रांची विश्वविद्यालय से पीएचडी की और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लिखती रहीं.डॉ नवगीत अच्छी गायिका भी हैं.इनका भोजपुरी लोकगीत का एलबम काफी लोकप्रिय है.

LEAVE A REPLY