निशिकांत सिंह.पटना.“रोड टू संगम” गाँधी के मूल्यों और उसके प्रभाव को एक नए अंदाज़ में लिए हुए है। नफरत किस किस से करे, कितनी करे और कब तक करते रहे?हमारे बाप दादाओ ने हमें जैसा भी हिन्दुस्तान दिया क्या हम उससे बेहतर अपनी अगली पीढ़ी को नहीं दे सकते? ये सारे सवालो और जवाबो की फिल्म है “रोड टू संगम”। फिल्म की असली ताक़त फिल्म की कहानी और अभिनय है। बिहार राज्य फिल्म विकास एवं वित्त निगम द्वारा आयोजित ‘कॉफी विद फिल्म’ में आज अमित राय की फिल्म ‘रोड टू संगम’ का प्रदर्शन किया गया।
‘रोड टू संगम’ की कहानी इलाहाबाद के एक बड़े मैकेनिक हशमत उल्लाह की है जिसके पास उस ट्रक का इंजन रिपेयर होने के लिए आता है जिसमें कभी महात्मा गांधी की अस्थियों को इलाहाबाद के संगम पर विसर्जित करने के लिए ले जाया गया था। लेकिन शहर के हालात बिगडे हुए है। कुछ दिन पहले हुए एक बम धमाके की जांच करते हुए पुलिस शक के आधार पर कुछ मुस्लिम युवकों को पकड़ लेती है। सियासत तो जैसे ताक में बैठी थी- हशमत को इलाके के मौलवी और कुछ मुस्लिम नेता उस इंजन की मरम्मत करने से रोकते है। आश्चर्य इस बात का कि बापू गांधी भी हिन्दू हो जाते है। अब हशमत उल्लाह के सामने सबसे बड़ी मुश्किल है कि क्या वो उस इंजन को ठीक करे जिससे किसी हिंदू की अस्थियों को लाया गया था या अपनी क़ौम और उसके दबंगों का साथ देते हुए मरम्मत करने से इनकार कर दे। पूरी फिल्म इसी उधेड़बुन और उसके बाद लिए गए फैसले को बयान करती है।
परेश रावल,ओमपुरी,पवन मल्होत्रा के साथ फिल्म में कुछ द्रश्यो में महात्मा गाँधी के पौत्र तुषार गाँधी भी है जो अपने ही किरदार में है। फिल्म में परेश रावल कहते है कि “अल्लाह अपने पैगम्बर बार बार नहीं भेजता, जब भेजे तो हमें उस पर अमल करना चाहिए”। आप गांधी को मानिए या न मानिए मगर इंसानियत से कौन इनकार कर सकता है? दुनिया की ख़ूबसूरती इसी में है की इसमें तमाम रंग है और सब साथ है।
महात्मा गांधी की स्मृति में आयोजित इस द्विदिवसीय आयोजन की श्रंखला में कल ‘गांधी और सिनेमा’ पर एक व्याख्यान का भी आयोजन किया गया है,जिसे गांधी संग्रहालय के अध्यक्ष रजी अहमद संबोधित करेंगे।