वर्ष 2002 में ही घरेलू हिंसा की शिकार महिलाओं की मदद के लिए बिहार में सबसे पहले शुरू हुई हेल्पलाईन में अपनी अहम भूमिका निभानेवाली ममता मेहरोत्रा की आज एक पहचान बन चुकी है.सामाजिक समस्याओं खासकर महिला-समस्याओं को लेकर लेखन और लघु फिल्म निर्माण के माध्यम से एक मुकाम हासिल कर चुकी हैं लेकिन वो मानती हैं कि उनकी संघर्ष-यात्रा जारी है.ममता मेहरोत्रा की खासियत यह है कि वो एक साथ साहित्य,शिक्षा,कला,फिल्म और समाजसेवा से जुड़ी हुई हैं.इनकी दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है और एक दर्जन लघु फिल्म का निर्माण कर चुकी हैं.पारिवारिक जिम्मेदारी के साथ-साथ एक प्रतिष्ठित विद्यालय की प्राचार्या का दायित्व वखूबी निभा रहीं हैं.एक वरिष्ठ आईएएस की पत्नी होने के बावजूद वे सामान्य,गरीब और ग्रामीण महिलाओं की समस्याओं पर ऐसी चर्चा करती हैं-मानों उनके दर्द को उन्होंने महसूस किया हो.महिलाओं की समस्याओं और सामाजिक-शैक्षणिक वातावरण पर इनसे आदर्शन समाचार के प्रधान संपादक प्रमोद दत्त ने विस्तृत बातचीत की.प्रस्तुत है बातचीत का प्रमुख अंश.
आदर्शन- महिला सशक्तिकरण के लिए आप 2002 से ही सक्रिय हैं.इतने वर्षों बाद क्या कुछ बदलाव महसूस करती हैं आप ?
—- कई बदलाव आए हैं.लड़कियों को शिक्षित करने की भावना जगी है.लेकिन जो मानसिक बदलाव होना चाहिए वह अभी नहीं हुआ है. पुरूष प्रधान समाज में अभी भी शादी के बाद लड़कियों को ही ससुराल में एडजस्ट करना पड़ता है.उन्हें अपने में परिवर्तन लाना पड़ता है.अभी भी बहु को बेटी नहीं समझा जा रहा है.
आदर्शन- तो क्या मातृसत्तात्मक समाज चाहती हैं आप ?
— मातृसत्तात्मक या पितृसत्तात्मक –यह होना ही नहीं चाहिए.पति-पत्नी एक सहचर होकर समाज का निर्माण करे.शुरू से ही हमलोगों ने फिजिकल कारणों से पुरूष को समाज-परिवार का नेतृत्व के लिए आगे कर दिया. नारी का प्रथम कर्तव्य घर-बच्चों के लिए बना दिया.लेकिन समय के साथ-साथ इसमें परिवर्तन आना चाहिए.
आदर्शन- जिस फिजिकल कारण की चर्चा कर रहीं हैं,यही कारण बेटा-बेटी में फर्क हो जाता हैं.बेटा की तुलना में बेटी के घर लौटने में देरी होने पर हम ज्यादा चिंतित हो जाते हैं.
— यहां बेटा-बेटी का सवाल नहीं उठता.हम नैतिक मूल्यों के निर्धारण की बात करते हैं.पुरूषों की सोच और नैतिकता में बदलाव की बात करते हैं.अगर कोई महिला रात को दो बजे घर से निकली तो समाज ऐसा बने कि हर पुरूषों में यह नैतिकता आए- उस अकेली महिला के लिए वह बाप-भाई की भूमिका निभाए. तब समस्या नहीं होगी.यहां मै यह भी कहना चाहूंगी कि हर मां भी जिम्मेदार है अपने बेटे की सोच बनाने में-खासकर ऐसी परिस्थितियों में उसकी नैतिक जिम्मेदारी के लिए.
आदर्शन- बलात्कार की घटनाएं बढ रही है.बहुत से लोग सवाल उठाते हैं कि इसका एक कारण लड़कियों का अत्याधुनिक ड्रेस भी होता है.क्या ड्रेस कोड होना चाहिए?
— बलात्कार सिर्फ ड्रेस के कारण नहीं हो रहे हैं.ग्रामीण महिलाएं या छोटी बच्चियों के साथ भी बलात्कार हो रहे हैं.मैं फिर कहूंगी कि पुरूषों में गलत नैतिक मूल्यों के विकास के कारण यह हो रहा है.वैसे मैं ड्रेस कोड को मानती हूं.समय,स्थान और अवसर के अनुसार ही महिलाओं को ड्रेस पहनना चाहिए.
आदर्शन- क्या बलात्कारियों के खिलाफ और सख्त कानून होना चाहिए?
— कानून और सख्त तो होना ही चाहिए.लेकिन मेरा मानना है कि सिर्फ कानून बना देने से बलात्कार की घटनाएं नहीं कम होगी.पुरूषों में नैतिकता का विकास जरूरी है.और इसके लिए परिवार एवं माता-पिता की अहम भूमिका हो जाती है.
आदर्शन- बच्चियों की भ्रूण-हत्या में माताओं की भी तो भूमिका होती है?
— क्यों नहीं होगा? सास का दबाव- उलाहना कि दो पोतियां हो चुकी है,तीसरी नहीं चाहिए- पड़ोसी की बहु ने बेटा जना है.यह कहीं न कहीं प्रताड़ित हो रही माताओं पर भी मानसिक दबाव बना देता है. उसे भी बेटा जनने का बेसब्री से इंतजार होने लगता है ताकि वह भी खुद को अच्छी बहु साबित कर सके. लेकिन इसमें भी परिवर्तन आ रहा है.आप स्वंय अपनी दादी,मां,बहन और बेटी के समय की तुलना करें- परिवर्तन दिख जाएगा.
आदर्शन- आप बहुमुखी प्रतिभा की धनी है. लेखक, फिल्मकार, शिक्षक,डांसर- किस क्षेत्र में कैरियर बनाना चाहती हैं?
— उम्र के अनुसार कैरियर के प्रति सोच बदलती रही.बचपन में डांस का प्रशिक्षण ले रही थी तो लगा इसे कैरियर बनाउंगी.शादी से पहले अपने बारे में सोचती थी पर बाद में बच्चों के एचीवमेंट सर्वोपरि हो गया.अब बच्चे सेट कर गए हैं.अपनी क्रिएटिविटी से अब मुझे संतुष्टी मिलती है.हमेशा सोचती हूं- कुछ ऐसा करूं जो अपने स्व की पहचान में महती भूमिका निभाए.
आदर्शन- अपने स्व की पहचान या संतुष्टि किस रूप में चाहती हैं?
— लेखक के रूप में कम से कम एक पुस्तक ऐसी हो जो मुझे भी चेतन भगत बना दे.स्व की पहचान की भूख अभी भी बरकरार है और यह मरते समय तक रहेगी. जिस दिन यह भूख खत्म हो जाएगी उसी दिन मर जाऊंगी.
आदर्शन- शिक्षा के अधिकार के तहत प्राईवेट स्कूलों में गरीब बच्चों के नामांकन के निर्देश का पालन नहीं किया जा रहा है.
— सही है स्कूल मेनटेन नहीं कर रहे हैं.जबकि कई ऐसे स्कूल हैं जो केन्द्र व राज्य सरकार से एनओसी लेता है,कई लाभ उठाते हैं लेकिन सरकार के निदेशों का पालन नहीं कर रहे हैं.यह गलत है.शिक्षा का अधिकार सभी बच्चों को है.
आदर्शन- कुछ स्कूल प्रबंधन एवं प्रभावशाली लोगों का मानना है कि दो अलग अलग वर्गों के बच्चों में तालमेल बिठाना कठिन है.पहनावा,लंच,व्यवहार आदि में भारी अंतर से बच्चों में कॉम्पलेक्स होगा.
— मैं यह नहीं मानती.बच्चे-बच्चे में भेदभाव नहीं होना चाहिए.प्राईवेट स्कूल जब करोड़ों कमा रहे हैं तो अपनी ओर से उन गरीब बच्चों के लिए अच्छे लंच की व्यवस्था क्यों नहीं कर सकते.करोड़ों-अरबों कमानेवाले स्कूल प्रबंधन 25-30 बच्चों को गोद नहीं ले सकते. पुरानी गुरूकुल व्यवस्था में एक ही गुरूकुल में कृष्ण-सुदामा पढते थे तो आज इतना सवाल क्यों ? शिक्षा पर सबका समान हक है.जो स्कूल प्रबंधन इस जिम्मेदारी से भागता है उसपर क्रिमिनल ओफेन्स होना चाहिए.