अमिताभ ओझा.पटना.आखिर हो भी क्यों नहीं… जब एक नहीं.. दो नहीं.. सात सात पुलिस पदाधिकारियों की हत्या हो जाए।जिन पर आम लोगो की सुरक्षा का भार है वही असुरक्षित है। पहले पुलिस वाले नक्सलियों के टारगेट पर होते थे।नक्सल इलाके में कभी सामने से कभी धोखे से पुलिस वालों को निशाना बनाया जाता था।लेकिन अब तो सरेआम अपराधी गिरोह पुलिस को टारगेट कर रहे है और गोलियों का निशाना बनाया जा रहा है। अगर सितम्बर 2015 से लेकर अब तक के आंकड़ो को देखे तो जमादार से लेकर इन्स्पेक्टर स्तर तक के आठ पदाधिकारियो की हत्या हुई है।कुछ के मामले का खुलासा हुआ है तो कई मामले अभी भी अनसुलझे है।इनमे पूर्णिया,नालंदा,नवादा,छपरा ,मोकामा ,फतुहा ,बक्सर और गोपालगंज शामिल है।
औरंगाबाद में नक्सलियों ने कई वैसे पुलिस कर्मियो के घरो को उड़ा दिया है जो नक्सल विरोधी ऑपरेशन में लगे है।गया के कोठी थानेदार को सोमवार की सुबह गोली मारकर ह्त्या कर दी गई।थानेदार कयामुद्दीन अंसारी मॉर्निंग वाक पर निकले थे तभी अपराधियो ने उन्हें निशाना बनाया। मरने के पहले हमलावरों और थानेदार के बीच झड़प भी हुई थी लेकिन हमलावर भारी पड़े। जिस तरह से घटना को अंजाम दिया गया ऐसा नहीं लगता है की घटना में नक्सलियों का हाथ है। यह अपराधियो का कारनामा लगता है। सूत्र बताते है की थानेदार इन दिनों इस इलाके में बाहुबली कहलाने वाले शाने अली पर शिकंजा कस रहे थे। शाने अली नब्बे के दशक में मध्य और दक्षिण बिहार में सक्रिय सन लाइट सेना से जुड़ा हुआ था।उसके खिलाफ दर्जनों मामले है लेकिन इनदिनों शाने अली जमीन के कारोबार में था।अब थानेदार कयामुद्दीन अंसारी के साथ उसकी रंजिश की वजह क्या है और इसमें उसका हाथ है की नहीं यह तो जाँच के बाद सामने आएगा। हालाँकि घटना की एक चश्मदीद ने जो बयान दिया है उसके अनुसार मारने वाला का लाल दाढ़ी था।खैर यह तो जाँच की बात है। एसआईटी का गठन किया जा चुका है। लेकिन सवाल उठता है की जब सूबे में पुलिस अधिकारी ही निशाने पर आ जायेंगे तो आम लोगो का क्या होगा? ऐसा भी नहीं है की पुलिस वालो के हत्यारे पकडे गए हो। सिर्फ वैशाली में हुए दारोगा हत्याकांड में पुलिस को सफलता मिली है जिसमे सारे अपराधी गिरफ्तार किये जा चुके है। नहीं तो पूर्णिया में थानेदार की हत्या पटना के मोकामा में दारोगा की हत्या या फिर नवादा और नालन्दा की घटना में आरोपियों की गिरफ़्तारी नहीं हुई है। फतुहा में एएसआई की हत्या मामले में भी अभी पुख्ता तौर पर कोई खुलासा नहीं हुआ है।
ऐसे में सवाल उठता है आखिर इस खौफ के माहौल में ये पदाधिकारी काम कैसे करे? उनकी भी परिवार है बीवी है बच्चे है ।भला कैसे अपने आपको सुरक्षित महसूस करे।अधिकारी तो सुरक्षाकर्मियो के बीच रहते है लेकिन जो ग्राउंड जीरो पर रहकर क्राइम कंट्रोल में लगे होते है उनकी सुरक्षा तभी तक होती है जब तक वो डियूटी के दौरान पुलिस कर्मियो के साथ गश्ती में होते है या थाने में होते है। लेकिन उनकी भी निजी जिंदगी है। हाल के दिनों में एक बात की और समानता रही है। थानेदार के रूप में 2009 बैच के ही पांच सब इन्स्पेक्टर की हत्या हुई है। ऐसे में सवाल यह भी है क्या इन पुलिस कर्मियो को पर्याप्त ट्रेनिंग मिली है।अगर देखे तो पुलिस लाइन में भी अब समय समय पर ट्रेनिंग देने की परिपाटी ख़त्म सी ही गई है। कई ऐसे पुलिस कर्मी दिख जायेंगे जिन्होंने वर्षो से फायरिंग की प्रैक्टिस नहीं की है।सेल्फ डिफेन्स की बाते भले ही कही जाती हो लेकिन कई ऐसे है जिनसे उनकी वर्दी भी नहीं संभलती। मेरे जेहन में यह सवाल था लेकिन पुलिस मुख्यालय इस बात की तह में नहीं जाना चाहता। मुख्यालय कहता है 2009 बैच दारोगा का सबसे नया बैच है।इसलिए उनकी तैनाती थानो में थानेदार के रूप में हो रही है। लेकिन ट्रेनिंग के मुद्दे पर मुख्यालय में बैठे अधिकारी भी मौन साध लेते है। खैर कारण की पड़ताल के साथ ही निवारण भी बहुत जरुरी है नहीं तो अगर वर्दी वालो में खौफ हुआ तो फिर आम जनता का क्या है?( लेखक न्यूज 24 में बिहार-झारखंड के ब्यूरो चीफ हैं)