प्रभात कुमार राय.
बचपन में अक्षर-ज्ञान के बाद जब हिन्दी पढ़ना शुरू किया उसी वक्त से दिनकर की बालोपयोगी किताबें, ‘मिर्च का मजा‘, ‘सूरज का व्याह‘, आदि बड़े चाव से पढ़ता था। फिर मध्य एवं उच्च विद्यालय के पाठ्यक्रम में दिनकर की कविताएँ ‘सिपाही का आदर्श‘, ‘कलम या कि तलवार‘, ‘शक्ति और सौंदर्य‘ तथा ‘कलम‘! आज उनकी जय बोल‘ गहनता से पढ़ने का मौका मिला। मेरे पिताजी (स्व. धर्मदेव राय) 1938 से ही, जब वे आँठवे वर्ग के छात्र थे, दिनकर जी के संपर्क में थे। दिनकर जी अपने क्षेत्र के लोगों से काफी घुल-मिल कर तथा सहृदयता से बातें करते थे। बाद में पटना कालेज में पढ़ाई के दरम्यान पिताजी की आत्मीयता दिनकर जी से प्रगाढ़ हुई। दिनकर साहित्य के प्रति पिताजी का अद्भुत सम्मान था।
मेरे घर के पुस्तकालय में पूरा दिनकर साहित्य उपलब्ध है। पिताजी का दिनकर जी के साथ बराबर पत्राचार होता था। पत्र का जबाव देने में दिनकर जी काफी तत्परता दिखाते थे। दिनकर जी के पत्र अधिकांशतः छोटे और पोस्टकार्ड पर हुआ करते थे लेकिन तथ्यों से भरपूर होते थे। हमलोग उत्सुकतावश उनकी चिट्ठियाँ पढ़ा करते थे। उनके पत्रों में अंतरंगता, जीवन पद्यति, अपना सुख-दुख तथा वैयाक्तिक विचार आदि सुस्पष्ट होते थे। पिताजी का संबोधित दिनकर के कुछ पत्र कन्हैयालाल फूलफगर जी की पुस्तक ‘दिनकर के पत्र‘ में संकलित किया गया है।
शैशवावस्था में मैं आकाशवाणी पटना से प्रसारित दिनकर की राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत कवितांए, ‘लहूँ में तैर तैर कर नहा रही जवानियाँ‘, ‘वह प्रदीप जो दिख रहा है झिलमिल, दूर नहीं हैं; थक कर बैठक गये क्यों भाई! मंजिल दूर नहीं है।‘ दिलचस्पी से सुना करता था। गाँव मे घर पर कविवर आरसी प्रसाद सिंह, डा0 राम खेलावन राय, डा0 वचनदेव कुमार, डा0 राम त्वक्या शर्मा, लक्ष्मी नारायण शर्मा ‘मुकुर’, ब्रहदेव शर्मा ‘विमुक्त’, वशिष्ट नारायण सिंह ‘विंदु’, भागवत प्रसाद सिंह एवं अन्य साहित्य प्रेमी कभी-कभी आते थे तो दिनकर के व्यक्तित्व और कृतित्व की चर्चा होती थी। पटना सांयस कालेज के प्राक्-विज्ञान के पाठ्यक्रम में ‘रश्मिरथी’ पुस्तक शामिल था जिसके कुछ अंश को डा0 जगदीश नारायण चौबे जी तथा शेष को प्रो0 राम खेलावन राय बड़े ही विस्तार से तथा रोचक ढंग से पढ़ाते थे। व्याख्या के वक्त वे दिनकर जी से अपनी अंतरंगता तथा उनकी कुछ पंक्तियों से असहमति भी जताते थे। इन सबके कारण मुझे इस महाकवि से मिलने की इच्छा थी। मैंने पिताजी से भी आग्रह किया था कि जब भी मौका मिले मुझे भी साथ ले चलें ताकि उनका दर्शन कर सकूँ।
23 सितंबर1972 को स्थानीय साहित्यप्रेमियों ने दिनकर जी की 64 वीं जयंती के अवसर पर उन्हें अभिनंदन करने हेतु एक समारोह का आयोजन फुलवरिया (बरौनी) उच्च विद्यालय में किया था। मैं उस वक्त बिहार कालेज आफ इंजीनियरिंग, पटना का छात्र था। संयोगवश उस दिन मैं अपने पैतृक निवास (बछवाड़ा, जिला-बेगूसराय) पर था। पिता जी ने मुझे भी बरौनी चलने को कहा। मेरे गाँव और उसके आस-पास के काफी लोग दिनकर जी को देखने और सुनने बछवाड़ा से रेलगाड़ी से बरौनी के लिए प्रस्थान किये। बरौनी स्टेशन पर ट्रेन से उतरते ही तेज सी आवाज आयी, ‘देखिए, काका हाथरसी जा रहे हैं।’ आगे बढ़ने पर सचमुच पाया कि लंबी दाढ़ी एवं खास केश-विन्यास वाले लोकप्रिय हास्यकवि कानपुर जानेवाली मीटर गेज की गाड़ी के डिब्वे में खिड़की के पास बैठे थे। लोगों ने उन्हें दिनकर जयंती समारोह के बारे में बताया तथा अपनी यात्रा को स्थगित कर भाग लेने हेतु आग्रह किया। लेकिन काका हाथरसी को कानपुर जाना आवश्यक था। इतने में गाड़ी रवाना होने लगी। उन्होने झट से अपनी जेब से कागज और कलम निकालकर रेंगते ट्रेन से त्वरित कुंडलियाँ दिनकर जी पर लिखकर अपने विलक्षण आशुकवित्व का परिचय दिया। उसकी कुछ पंक्तियाँ अभी भी याद हैः
‘मिली बरौनी में खबर, हुआ हृदय को हर्ष।राष्ट्रकवि दिनकर करें जीवन में उत्कर्ष।।’…..
हास्यकवि काका हाथरसी की हस्तलिखित फौरी कविता को जयंती समारोह में उन्ही की शैली में सबों को सुनाया गया था।राष्ट्रकवि से मिलने की अभिलाषा पूरी होते देख मैं बहुत उत्साहित था। निर्धारित समय पर विद्यालय के प्रांगण में दिनकर जी का आगमन हुआ। उनका देदीप्यमान व्यक्तित्व, गौर वर्ण, सुलंब देहयाब्ठि, दिव्य ललाट, दीप्त चेहरा, शुभ्र कुर्ता एवं धोती, भव्य अंगवस्त्रम्, सजा-सँवारा केश-विन्यास, दाँहिने हाथ में लंबी छड़ी और बाँये हाथ से अपने सुपौत्र अरविंद कुमार सिंह को पकडे हुए देखकर हम सब मंत्र-मुग्ध थे। समारोह स्थल पर काफी भीड़ थी। मंच पर जनपद के साहित्यकार एवं कलाप्रेमियों में राष्ट्रकवि के करीब पहुँचने के लिए होड़ लगी थी। मैं भीड़ और अफरा-तफरी देखकर थोड़ा निरूत्तसाहित हो गया था कि शायद मेरी मुलाकात दिनकर जी से नहीं हो पायगी। पिताजी मंच पर दिनकर जी के निकट बैठे थे। मैं दूर खड़ा था। मेरी उदासी और मनोभाव को भाँपकर पिताजी ने हाथ हिलाकर मुझे मंच पर आने का इशारा किया। मैं यह मौका चूकना नहीं चाहता था। भीड़ को चीरते हुए मैं मंच पर दिनकर जी के पास पहुँच गया। पिताजी ने मेरा परिचय राष्ट्रकवि से करवाया। मैं राष्ट्रकवि का चरणस्पर्श कर आर्शीवाद लिया। उन्होंने मुझे स्नेहपूर्वक अपने पास बैठाया और गौर से मुझे देखने के बाद पिताजी को कहा, “धर्मदेव, तुम्हारा लड़का तो तुम्हारी तरह दुबला-पतला है। तुम्हारे शरीर पर माँस नहीं चढ़ेगा? जैसा कालेज में थे वैसे के वैसे रह गये?” फिर मेरी ओर मुखातिव होकर कहा- ‘खूब मेवा खाओ और दूध पीओ। तुम इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे हो। इसमें तो कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी। सुना है, वर्कशाप में हथौड़ा भी चलाना पड़ता है।’ युवकों के कृषकाय शरीर को देखकर दिनकर जी बुरी तरह झुंझला जाते थे। उनको पिचका हुआ गाल और दुबला शरीर बिल्कुल पसंद नहीं था। मैं मन ही मन सोच रहा था, ‘पत्थर-सी हो मांसपेशियाँ, लोहे से भुजदंड अभय; नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जाय।‘ पंक्तियों के रचनाकर को किसी युवक के क्षीण शरीर को देखकर ऐसी प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। महाकवि के पास बैठकर मैं उनके आकर्षक व्यक्तित्व और चेहरे की आभा से काफी पुलकित और विस्मित था। प्रारंभ में मैं काफी असहज महसूस कर रहा था लेकिन उनकी प्रकृति की सरलता तथा स्नेहवर्षा ने मुझे सहज बना दिया। सहसा मुझे यह ख्याल आया कि क्यों नही दिनकर जी से कुछ साहित्यिक चर्चा कर लूँ? मंच संचालन में व्यवस्थागत कमी के कारण विलंब हो रहा था। यह मेरे लिए वरदान साबित हुआ। मैंने हिम्मत जुटाकर कहाः ‘महाशय, आपकी लोकप्रिय रचना एवं सर्वश्रेष्ठ सहज कृति ‘रश्मिरथी’ हमलोगों को पटना सायंस कालेज में पढ़ाया गया है। मुझे और मेरे सहपाठियों को इस काव्य के अधिकांश अंश कंठस्थ है। कविता का प्रवाह विलक्षण है। ‘पीसा जाता जब इक्षुदंड, बहती रस की धारा अखंड; जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते है; मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं की श्रृंगार……….’ क्या ये पंक्तियाँ स्वतः आपके अंतःस्थल से प्रस्फुटित होकर निकली है. उन्होंने गंभीरतापूर्वक कहाः ‘तुम कविता को आसान समझ लिए हो। वास्तव में कवि धर्म अत्यंत कठिन है। कवि का प्रधान कर्म अनुभूतियों का ग्रहण एवं उसकी सम्यक् अभिव्यक्ति है। तुम्हें आश्चर्य होगा कि जिन पंक्तियों को तुमने एक श्वास में सुनाया हैं, उन्हें अंतिम रूप देने में मुझे रात भर जगकर कई बार काटना-छाँटना पड़ा ताकि भाव एवं अनुभूति को प्रबलतम एवं निकटतम ढंग से व्यक्त कर सकूँ।‘ मुझे मन ही मन अंग्रेजी का सूत्रवाक्य ‘जीनियस एक प्रतिशत प्रतिभा और 99 प्रतिशत पसीना का जोड़ होता है’ – का मर्म समझ में आ गया। जिसमें अध्यवसाय, लगन और धीरज नहीं है, वह प्रतिभासंपन्न होकर भी कोई बड़ा काम संपादित नहीं कर सकता है। मुझे उनकी रचनाओं को पढ़कर उस प्रभूत प्रस्वेद का ध्यान आता है जिसे दिनकर जी ने बहाया होगा। बाद में उनकी पुस्तक ‘शुद्ध कविता की खोज’ पढ़ने पर कविता के संबंध में उनकी विचारों से अवगत हुआ। उन्होने लिखा हैः ‘कवि का कार्य छन्द और तुकों की घूस देकर पाठको को रिझाना नहीं है। उसका काम अनुभूूतियों को उसके सही रूप में ग्रहण करना है।‘
मेरी पहली जिज्ञासा पर राष्ट्रकवि की गंभीर प्रतिक्रिया से मैं काफी उत्साहित हो गया तथा मेरा आत्मबल भी मजबूत हो गया। इससे तमाम झिझक दूर हो गया और मैं दिनकर जी की गर्विष्ठ उपस्थिति में बिल्कुल सहज महसूस करने लगा जिससे मुझे दूसरे प्रश्न पूछने की इच्छा जागृत हुई। बहुत से उपस्थित साहित्यकार एवं साहित्यप्रेमी मुझे ईष्र्यायुक्त नजरों से घूर रहे थे कि कौन नवयुवक राष्ट्रकवि से घुल-मिलकर आत्मीयता से बातें कर रहा है? मैंने पूछाः “महाशय अपनी श्रृंगारिक रचना ‘उर्वशी’ में आपने लिखा हैः ‘शिखरों का जो मौन, वही झरनों में गरज रहा है।’ मेरे जानते इन पंक्तियों का भावार्थ ऊर्जा के संरक्षण के सिद्धांत को प्रतिपादित करती है। शिखर से ऊँचाई का भान होता है और यह स्थितज ऊर्जा (पोटोन्सियल इनर्जी) का द्योतक है। झरना गतिशीलता के कारण गतिज ऊर्जा (काइनेटिक इनर्जी) को इंगित करता है। शिखर पर स्थितज ऊर्जा महत्तम होता है और गतिज ऊर्जा शून्य। इसके विपरीत झरना में गतिज ऊर्जा महत्तम होता है और स्थितज ऊर्जा शून्य।“ इसे सुनते ही दिनकर जी ने कहाः ‘तुम विज्ञान के विद्यार्थी हो। मै इतिहास पढ़ा हूँ लेकिन विज्ञान के संबंध में मेरी निश्चित धारणा है जिसे मैं कई निबंधो में व्यक्त किया हूँ। तुम्हारा ऊर्जा के संरक्षण संबंधी विश्लेषण मेरे दिमाग से परे है।‘ इतने में मंच संचालन आरंभ हो गया तथा कई साहित्यिक दिनकर जी की ओर बढ़ने लगे। मैं पुनः चरण-स्पर्श कर श्रोताओं की पिछली पंक्ति में खिसक गया। दिनकर जी की विचारोत्तेजक बातें मुझे यह सोचने को बाध्य कर दिया कि ज्ञान की सारी शाखाएँ अंततः एक जगह कनवर्ज हो जाती है। कालांतर में दिनकर जी के एक निबंध में पढ़ा कि ‘विज्ञान स्थूलता की कला है। किन्तु, कविता वस्तुओं के सूक्ष्म रूप का मूल्य ढूंढ़ती है जो गणित की भाषा में व्यक्त नहीं किये जाते हैं।’
इस समारोह की बड़ी खासियत थी कि कविवर आरसी प्रसाद सिंह, जो दिनकर के अंतरंग मित्र थे, समारोह का सभापतित्व करने अपने गाँव एरौत (समस्तीपुर जिला) से आये थे तथा इन दोनों महाकवियों का मिलन लगभग 20 साल बाद हो रहा था। मंच पर लक्ष्मी नारायण शर्मा ‘मुकुर’, महेन्द्र नारायण शर्मा, भागवत प्रसाद सिंह, वशिष्ट नारायण सिंह ‘विंदु’, ब्रह्मदेव शर्मा ‘विमुक्त’ आदि उपस्थित थे। जनपद के कवियों द्वारा दिनकर जी को समर्पित कविताओं का पाठ एवं भाषण के बाद सभापति महोदय द्वारा ‘राका’ पत्रिका का दिनकर अंक दिनकर जी को समर्पित किया जाना था। जब आरसी जी उठकर पत्रिका का विशेषांक समर्पित करनेवाले थे, अचानक दिनकर जी चिल्लायेः ”अरे, कोई फोटोग्राफर नहीं है जो इस दृश्य को कैमरे में कैद कर लेता?“
कार्यक्रम के अंत में जब दिनकर जी को बोलने के लिए अनुरोध किया गया तो मैं सोच रहा था कि अपनी ओजस्वी वाणी में कविता पाठ करेंगे लेकिन उन्होंने अपना भाषण कुछ इस तरह आरंभ किया…..
“गोस्वामी तुलसीदास ने एक जगह लिखा है,‘तुलसी वहाँ न जाइये जहाँ जन्म स्थान ,..गुण-अवगुण सब कोय जाने, धरे तुलसिया नाम।‘
लेकिन मैं तुलसीदास जी से सहमत नहीं हूँ। मैं उनसे क्षमायाचना के साथ उनके पदों में कुछ संशोधन कर रहा हूँ–तुलसी निश्चय जाइए जहाँ जन्मस्थान,प्यारसहित सब कोई धरे जहाँ तुलसियानाम।“फिर उन्होंने कहा कि मेरा अभिनंदन मेरे साहित्यिक अवदान के लिए नहीं होना चाहिए। वरन् इसलिए होना चाहिए कि मैंने दस कन्याओं का व्याह करवाया है। यह दहेज प्रथा जैसी सामजिक कुरीति पर राष्ट्रकवि का व्यंगयात्मक प्रहार था।
अपने अभिभाषण के क्रम में दिनकर जी बड़े रोचक तरीके से कला, व्यक्तित्व, उपयोगिता, टालस्टाय, कवीन्द्र रवीन्द्र, इकवाल, गाँधी जी तथा मार्क्स की चर्चा की। धारा प्रवाह और सारगर्भित भाषण में दिनकर की वाणी में समाया तेज उनके आकर्षक चेहरे पर दीप्त हो उठता था। उन्होने कहा कि कला को व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है। लेकिन व्यक्तित्व क्या है?
‘टालस्टाय और इकबाल कला में सत्य एवं शिव की स्थापना चाहते थे। टालस्टाय के अनुसार केवल आनंद देनेवाली कला उस भोजन के समान है जो केवल चबाने में अच्छा लगता है। इकबाल कला में उपयोगिता खोजते थे। टालस्टाय और इकवाल कला के नैतिक पक्ष को महत्वपूर्ण मानते थे लेकिन कवीन्द्र रवीन्द्र कला को आनंद का पर्याय मानते थे। इकवाल का मानना था कि कला का दर्शन और विज्ञान की तरह जीवन में स्वास्थ्य एवं शक्ति की वृद्धि में निश्चित रूप से योगदान होना चाहिए। जिस कला से दुर्बलता का बोध होता है वह इकबाल के लिए सर्वथा त्याज्य था।
रवीन्द्रनाथ मानते थे कि उपयोगिता कला से भिन्न है। जब तक हम उपयोगिता की परिधि से बाहर नहीं निकलते हमारा व्यक्तित्व नहीं पनप सकता। उदाहरणस्वरूप उन्होनें लिखा है कि नारी की उपयोगिता माता, बहन, पत्नी आदि के तौर पर अत्यधिक है लेकिन इसे उसका व्यक्तित्व नहीं कहा जा सकता। इसका व्यक्तित्व तो चलने-फिरने की अदाओं, भंगिमा और नाना प्रकार के हावभाव हैं। चूँकि रवीन्द्र सत्य को प्राप्त कर चुके थे इसलिए उन्होंने निःसंकोच इस तरह का दृष्टांत दिया। सैनिको के व्यक्तित्व की अभिव्यंजना युद्धकौशल में कतई परिलक्षित नहीं होता है। सैनिकों का वर्दी पहनकर बाजे के साथ कवायद की चाल आदि उनके व्यक्तित्व को दर्शाता है। श्रेष्ठ साहित्य वह नहीं जिसका जीवन में प्रत्यक्ष उपयोग है। यह वह है जो उपयोगिता के घेरे को लाँधकर उत्पन्न होता है। जब तक मनुष्य उपयोगिता के वृत में है वह कला की सृष्टि नहीं कर सकता।शुरू से ही रवीन्द्र और इकबाल मेरे हृदय को आंदोलित करता रहा है और उनके समान बनने की मुझमें उमंग थी। हाँलाकि वे दो परस्पर विरोधी क्षितिज से बोलते थे। मैंने निःसंदेह इकवाल और रवीनद्रनाथ टैगोर से बहुत ग्रहण किया है।‘
भाषण के अंत में उन्होने अपने बारे में महत्वपूर्ण खुलासा किया-‘जिस तरह जवानी भर मैं रवीन्द्र और इकवाल के बीच झटके खाते रहा, उसी तरह जीवन भर गाँधी और मार्क्स के बीच झूलता रहा। इसलिए उजले को लाल से गुणा करने पर जो रंग बनेगा, वही रंग मेरी कविता का है और शायद अपने देश का भी भविष्य में ऐसा ही रंग होगा।‘
कालान्तर में 1 दिसंबर1973 को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा ‘उर्वशी’ पर विज्ञान भवन में आयोजित पुरस्कार समर्पण में तथा ‘रश्मिलोक’ (1974)’ पुस्तक की भूमिका में भी दिनकर जी ने उपर्युक्त आशय का गंभीर एवं दार्शनिक पक्ष को मर्मस्पर्शी ढ़ंग से उजागर किया था। वस्तुतः उनकी कविता का दर्शन गाँधी और मार्क्स के सांमजस्य से सृजित है।
उनके गूढ़ वैचारिक भाषण सुनने के बाद मुझे दिनकर की पंक्ति ‘सरस्वती की जवानी कविता है और उसका बुढ़ाया दर्शन है’ की यथार्थता का बोध हो रहा था। इसके बाद मेरी अभिरूचि दिनकर जी के गद्य में तीव्र रूप से जगी।मेरे पिताजी ने अपने आलेख ”आरसीः अमर चेतना का शिल्पी“ में कविवर आरसी प्रसाद सिंह का 23सितंबर1972 को दिनकर जी से मुलाकात की विशेष चर्चा की है।
उन्हीं के शब्दों में- ”बाद में मैने आरसी जी से पूछा कि उस रात दिनकर जी से लंबे अंतराल के बाद मिलने पर क्या-क्या बातें हुई तो आरसी जी बोले, ‘अरे, पूछिए मत। दिनकर जी दो बजे रात तक बातें करते रहे। वे तो सोने का नाम ही नहीं लेते थे। जब मुझे अलसाते देखा तो उन्होने नींद की गोलियाँ ली और सो गये।’ इस बात को सुनकर अचंभा हुआ कि राष्ट्रकवि को भी नींद का सहारा लेने के लिए नींद की गोलियाँ लेनी पड़ती है।“
उनकी वैचारिक गंभीरता, ओजस्वी वाणी और तेजस्वी मुद्रा मुझ पर अमिट छाप छोड़ गया है। उनकी उक्ति, ‘साहित्य में किसी विषय वस्तु के साथ कवि की निजी भावनाओं के सम्मिश्रण में ही सत्य और कल्पना का परस्पर आलिंगन होता है‘ की सार्थकता का बोध हो रहा है।दुर्भाग्यवश मेरी मुलाकात के लगभग डेढ़ साल बाद तिरूपति दर्शन के क्रम में मद्रास में 24 अप्रैल1974 को दिनकरजी का देहावसान हो गया और मेरी पहली मुलाकात अंतिम मुलाकात में परिणत हो गयी। यह मेरे जीवन की अविस्मरणीय घटना है। यह प्रभापुंज हमारे बीच नहीं रहा लेकिन युगों तक उनके साहित्यिक एवं सृजनात्मक कृति से हमारी नयी पीढ़ी को प्रेरणा और मार्गदर्शन मिलता रहेगा। महाकवि से दैव-संयोग से मेरी छोटी लेकिन प्रभावोत्पादक मुलाकात एवं साहित्यिक चर्चाएँ मेरी स्मृतियों की मंजूषा में चिर संचित रहेगा। ( लेखक बिहार के मुख्यमंत्री के ऊर्जा सलाहकार हैं)