लोकतांत्रिक संसदीय व्यवस्था में जितना महत्व सदन नेता (मुख्यमंत्री) का है , उससे कम महत्व नेता प्रतिपक्ष का भी नहीं है. सरकार के कामकाज पर पैनी नजर रखने के लिए विपक्ष की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण है. इंदिरा गांधी से लेकर अटल बिहारी बाजपेयी व राजीव गांधी ने लोकसभा में दोनों दायित्वों का निर्वाह किया . बिहार में भी कर्पूरी ठाकुर से लेकर डॉ. जगन्नाथ मिश्र जैसे राजनीतिबाज दोनों भूमिकाओं में नजर आए.
लेकिन इन दिनों बिहार में चल रहें सत्ता संघर्ष पर गौर करें तो स्पष्ट होगा कि नीतीश कुमार से लेकर सुशील कुमार मोदी तक जैसे नेता मुख्यमंत्री बनने की होड़ में तो शामिल हैं लेकिन दोनों को प्रतिपक्ष का नेता का बनना मंजूर है.
नीतीश कुमार और सुशील कुमार मोदी का विधानसभा चुनाव नहीं लड़ने के निर्णय का साफ मतलब यही निकलता है. दोनों नेता पिछले 10 वर्षों के दौरान मुख्यमंत्री या उपमुख्यमंत्री का पद भी संभाला , लेकिन विधानसभा चुनाव लड़ने के बजाए विधान परिषद का सदस्य बनकर सदन में पिछले दरवाजे से पहुंचे. नियमानुसार विधानपरिषद का सदस्य बनकर सदन नेता (मुख्यमंत्री) या मंत्री तो बना जा सकता है लेकिन विधानसभा में विरोधी दल का नेता बनने के लिए विधानसभा की सदस्यता आवश्यक है. जिस प्रकार 2005 के पूर्व राजद की राबड़ी देवी मुख्यमंत्री (सदन के नेता) बनी रहीं वही 2005 में सत्ता से बेदखल होने के बाद राजद ने अब्दुल बारी सिद्दिकी को नेता प्रतिपक्ष बनाया. उसी प्रकार अगर महागठबंधन को बहुमत मिला तो नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बनेंगे और अगर विपक्ष में बैठना पड़ा तो राजद के सिद्दिकी या जदयू के विजय कुमार चौधरी जैसे नाम विरोधी दल नेता पद के लिए आगे कर दिये जायेंगे. यही बात सुशील कुमार मोदी के संबंध में भी कहा जा सकता है. हालांकि भाजपा ने उन्हें सीएम उम्मीदवार घोषित नहीं किया है लेकिन सुशील कुमार मोदी खुद को प्रोजेक्ट कर रहें है. मुख्यमंत्री के रूप में जहां खुद को प्रोजेक्ट कर रहे हैं वहीं नेता प्रतिपक्ष उन्हें भी मंजूर नहीं है इसलिए विधानसभा चुनाव नहीं लड़ रहें है. इससे इतना तो साफ है कि नीतीश व मोदी ‘पद’ के लिए राजनीति कर रहे हैं. विपक्ष की लोकतांत्रिक या संसदीय जिमेमेदारी उन्हें मंजूर नहीं है.