भारत में प्रजातंत्र का भविष्य

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वैशाली सिन्हा.

अधिकारों की असमानता तथा अवसरों की विषमता आन्दोलनों को जन्म देती है । इस प्रकार राजतंत्र तथा कुलीनतंत्र के ध्वंसावशेषों पर प्रजातंत्र राजनैतिक समानता के सिद्धांत के साथ उदित हुआ है ।

यह निस्संदेह अपने आप में एक उच्च सामाजिक आदर्श है । ब्रिटिश लेखक जार्ज बनार्ड शॉ के मतानुसार, ”प्रजातंत्र एक सामाजिक व्यवस्था है जिसका लक्ष्य सामान्य जनता के सर्वाधिक कल्याण में निहित है न कि एक वर्ग विशेष के कल्याण में।”

एक ऐसा विश्व जिसमें लोगों की आवाज भगवान की आवाज है तथा प्रत्येक 21वर्ष से अधिक के व्यक्ति की राजनीतिक क्षमता, एवं कुशलता असीमित, अमोध एवं अचूक है, बर्नाड के अनुसार यह एक प्रकार का परियों का देश है ।

विश्वविख्यात राजनैतिक सिद्धांतवादियों के अनुसार तीन मूल आवश्यकताएं प्रजातंत्र को अवश्य ही परिपूर्ण करनी चाहिए । इसका मुख्य उद्देश्य अधिक से अधिक लोगों का कल्याण करना, विभिन्न मतभेदों को वाद-विवाद एवं संधि-समझौते के द्वारा दूर करना और अंतत: एक समानतावादी समाज की स्थापना के लिए कार्य करना है । यदि हम पृष्ठभूमि का आलोचनात्मक अवलोकन करें तो हम देखते हैं कि जब से हमें स्वतंत्रता मिली है तभी से भारत में प्रजातांत्रिक व्यवस्था का विकास इन्ही कारणों से असंतोषजनक रहा है ।

सर्वाधिक लोगों के सर्वाधिक कल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने के प्रयत्नों को नागरिकों विधायकों तथा मन्त्रियों द्वारा स्वार्थी तथा संकुचित हितों को अनावश्यक रूप से प्रधानता देने के कारण बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने का मार्ग अवरुद्ध हो गया है । इसका सबसे उचित तथ्य तथा सबूत देश में से भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में व्याप्त भ्रष्टाचार से ग्रस्त न हो ।

संथानम समिति जिसकी स्थापना सरकार ने भ्रष्टाचार की समस्या के अध्ययन को जानने के उद्देश्य से की थी, के मतानुसार मंत्री विधायक तथा राज्याधिकारी सभी स्वतंत्र रूप से दंडविधान से निश्चित, बेरोक-टोक भ्रष्टाचार में डूबे है ।

दलगत भावना किसी भी जगह प्रजातांत्रिक परम्परा के विकास को अवरुद्ध कर सकती है । भारत में ये विभिन्न रूपों में प्रदर्शित होती है । यह दलगत भावना ही है जो संकीर्णतावाद को बढ़ावा दे रही है तथा उसे उत्पेरित करती है । इसके अलावा पृथकतावादी प्रवृतियों ने देश की एकता को भी खतरे में डाल रखा है ।

आज व्यक्ति की महत्ता दल की महत्ता की अपेक्षा गौण है । जनसामान्य दल के परिपेक्ष में ही व्यक्ति की महत्ता को देखते हैं । निर्वाचनों में स्वतंत्र उम्मीदवार के जीतने के अवसर बहुत ही कम होते है क्योंकि चुनाव सामान्यत: बड़े राजनीतिक दलों द्वारा लड़े जाते हैं तथा व्यक्तिगत उम्मीदवारों की योग्यता तथा गुण ऐसी निर्वाचन पद्धति में कोई महत्व नहीं रखते ।

प्रजातन्त्र की तीसरी प्रमुख विशेषता यह है कि सर्वदा एक समानतावादी समाज की स्थापना के लिए कार्य करे । एक ऐसे समाज की स्थापना होनी चाहिए जिसमें सबकों समान अवसर प्राप्त हो । यह स्पष्टतया ऐसी स्थिति में असंभव से प्रतीत होते हैं जबकि प्रमुख प्रधानता व्यक्तिगत स्वार्थो, हितों और दलगत भावना को दी जाती है ।

राजनीतिज्ञ प्रत्येक विषय अथवा वस्तु का निजी हित की दृष्टि से तोलते हैं । वे वस्तु को निजी हित की शिक्षा से लेकर सामाजिक कल्याण के क्षेत्रों तक में नीति का गला घोटने में और अन्याय का साथ देने में संकोच नहीं करते । निजी हितों के कारण समानतावादी समाज की स्थापना पूर्णत: असंभव लगती है ।

एक प्रजातान्त्रिक सरकार को न केवल संसदीय बहुमत की अपितु संसदीय अल्पमत की भी उतनी ही आवश्यकता है जोकि एक सुदृढ़ विरोधी दल के रूप में कार्य कर सके । संसदीय प्रजातंत्र तब तक सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता जब तक कि सत्तारूढ़ दल और विरोधी दल अपने मध्य मतभेदों की शांति पूर्वक संवैधानिक तरीकों से हल कर पाने में सहमत न हों । नई सरकार विभिन्न विषयों पर विरोधी दलों के सदस्यों का मत भी प्राप्त कर सकती है ।

परम्परागत प्रजातांत्रिक व्यवस्था भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप सिद्ध नही हुई है । प्रमुख समस्या प्रजातंत्र की परम्परावादी संस्थाओं को परिवर्तित करके उसे आधुनिक समय के अनुकूल बनाने की है । प्रजातंत्र की अकुशलता सर्वप्रथम उसके आर्थिक पहलू में उजागर हुई है ।

इस प्रकार भारत में प्रजातंत्र की एक सबसें बड़ी समस्या आर्थिक व्यवस्था को इस प्रकार से व्यवस्थित करने की है जिससे कि प्रत्येक व्यक्ति को उचित जीवन स्तर प्राप्त कराया जा सके तथा उन्हें सुरक्षा तथा स्वतंत्रता प्रदान की जा सके ।

 

 

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