के. विक्रम राव.
पूर्वी दिल्ली के दंगों (फरवरी 2020) वाले मुकदमें के अभियुक्तों पर उच्चतम न्यायालय का कल (18 जून 2021) का आदेश कहीं अधिक निर्णयात्मक हो सकता था। अभियुक्तों की जमानत निरस्त तथा हाईकोर्ट के आदेश को ही रद्द किया जा सकता था। ये आरोपी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के तीन दंगाई छात्र हैं जिनकी मंशा और मकसद पर गौर होना चाहिये था। दंगा का समय था जब अमेरिकी राष्ट्रपति राजकीय यात्रा पर दिल्ली आये थे। दुनियाभर के संवाददाता उपस्थित थे। अर्थात स्थानीय खबर पूरे भूलोक में प्रसारित होती और हुयी भी। भारत की छवि खराब करने की सुविचारित षड़यंत्र था। इन दंगों में 53 नागरिक मार डाले गये थे। करीब 700 घायल हुये थे।
दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तिद्वय सिद्धार्थ मृदुल और अनूप जे. भंभानी ने अभियुक्तों की साधारण जमानतवाली याचिका पर विस्तृत 100 पृष्ठवाला फैसला लिखा। इसे उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्तिद्वय हेमंत गुप्ता तथा बी. रामसुब्रहमण्यम ने अचंभाभरा तथा बहुत लम्बा बताया। उन्होंने कहा कि इस आदेश की समुचित समीक्षा होगी। शीर्ष अदालत की राय में ”हाई कोर्ट ने तो संसद द्वारा पारित समूचे आतंकवाद—विरोधी कानून के औचित्य पर ही सुनवाई कर ली, जो परिधि के बाहर थी।” इसीलिये उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालत के इस आदेश को नजीर बनने पर रोक लगा दी। हालांकि तीनों छात्रों की रिहाई के आदेश पर रोक लगाने से इन्कार कर दिया। मगर पूरे आदेश को किनारे कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं कहा कि : ”हाईकोर्ट के आदेश से वे आश्चर्यचकित है। आतंकविरोधी कानून पर तो विचार करने का मुद्दा ही नहीं था। केवल जमानत याचिका पर विचार करना था।” दंगे में शामिल इन तीनों छात्रों (मोहम्मद आसिफ तन्हा, नटाशा और देवांगना) को भी अगली सुनवाई हेतु सुप्रीम कोर्ट ने नोटिस जारी कर दी।
लेखक के.विक्रम राव देश के जानेमाने अनुभवी पत्रकार एवं पत्रकार संगठन आईएफडब्ल्यूजे के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.k.vikramrao@gmail.com
हालांकि हाईकोर्ट ने दिल्ली पुलिस के अभियोगपत्र को अतिरंजित और बातूनी बताया। इसीलिए उच्चतम न्यायालय की राय प्रभावी थी कि हाईकोर्ट के आदेश की तार्किक समीक्षा होगी।यहां पर विचारणीय पहलू यह था कि हाईकोर्ट ने ”असहमति के अधिकार और अराजकतावादी हरकत के बीचवाले अंतर को ही नजरंदाज कर दिया।” कांग्रेस नेता और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिबल जो कि इन तीन दंगाई अभियुक्तों के वकील हैं, ने कहा कि : ”समीक्षा का विरोध नहीं है।” इस न्यायिक निर्णय के संदर्भ में ”असहमति व्यक्त करने के कर्तव्य” पर कुछ टिप्पणी आवश्यक बताया।
मेरी पुस्तक ”मानेंगे नहीं, मारेंगे नहीं” (प्रकाशक : अनामिका, नई दिल्ली) के एक अनुच्छेद का उदाहरण यहां दे दूं। इससे विरोध के हक का औचित्य ज्यादा स्पष्ट हो जायेगा :— ”जहां संख्यासुर के दम पर सत्तासीन दल निर्वाचित सदनों को क्लीव बना दे, असहमति को दबा दे, आम जन पर सितम ढायें, तो मुकाबला कैसे हो? इसीलिए डॉ. लोहिया ने गांधीवादी सत्याग्रह को सिविल नाफरमानीवाला नया जामा पहना कर एक कारगर अस्त्र के रुप में ढाला था। इसमें वोट के साथ जेल भी जोड़ दिया था। उनका विख्यात सूत्र था ”जिन्दा कौमें पाँच साल तक इन्तजार नहीं करतीं।” यही सिद्धांत लिआन ट्राट्स्की की शाश्वत क्रान्ति और माओ जेडोंग के अनवरत संघर्ष के रूप में प्रचारित हुई थीं। डॉ. लोहिया ने इतिहास में प्रतिरोध के अभियान की शुरूआत को भक्त प्रहलाद और यूनान के सुकरात, फिर अमरीका के हेनरी डेविड थोरो में देखी थी। बापू ने उसे देसी आकार दिया था। डॉ. लोहिया की मान्यता भी थी कि प्रतिरोध की भावना सदैव मानव हृतंत्री को झकझोरती रहती है, ताकि सत्ता का दम और दंभ आत्मबल को पंगु न बना दे। स्वाधीन लोकतांत्रिक भारत में सत्याग्रह के औचित्य पर अलग—अलग राय व्यक्त होती रही है। जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री बनते ही (अगस्त 1947) निरूपित कर दिया था कि स्वाधीन भारत में सत्याग्रह अब प्रसंगहीन हो गया है। उनका बयान आया था जब डॉ. राममनोहर लोहिया दिल्ली में नेपाली दूतावास के समक्ष सत्याग्रह करते (25 मई 1949) गिरफ्तार हुए थे। नेपाल के वंशानुगत प्रधानमंत्री राणा परिवार वाले नेपाल नरेश को कठपुतली बनाकर प्रजा का दमन कर रहे थें। ब्रिटिश और पुर्तगाली जेलों में सालों कैद रहने वाले डॉ. लोहिया को विश्वास था कि आजाद भारत में उन्हें फिर इस मानवकृत नरक में नहीं जाना पड़ेगा। मगर प्रतिरोध की कोख से जन्मा राष्ट्र उसी कोख को लात मार रहा था। अतः आजादी के प्रारंभिक वर्षों में ही यह सवाल उठ गया था कि सत्ता का विरोध और सार्वजनिक प्रदर्शन तथा सत्याग्रह करना क्या लोकतंत्र की पहचान बनें रहेंगे अथवा मिटा दिये जाएंगे? सत्ता सुख लंबी अवधि तक भोगने वाले कांग्रेसियों को विपक्ष में (1977) आ जाने के बाद ही एहसास हुआ कि प्रतिरोध एक जनपक्षधर प्रवृत्ति है। इसे संवारना चाहिए। यह अवधारणा विगत वर्षों में खासकर उभरी है, व्यापी हैं।
किन्तु यही प्रतिरोध की आवाज इर्मेंजेंसी (1975-77) में कुचल दी गई थी। मीडिया केवल सरकारी माध्यम मात्र बन गया था। कांग्रेसी अधिनायकवाद के विरोधी जेलों में ठूंस दिये गये थे। समूचा भारत गूंगा बना दिया गया था। अत: अब सर्वोच्च न्यायालय को इन दंगाइयों की हरकत और जमानत पर विचार करते हुये निरुपित करना पड़ेगा कि सत्ता से असहमति व्यक्ति करने का माध्यम कैसा हो? परिभाषा क्या हो? सीमा कहा तक हो? वे कितने दंडनीय हो सकते हैं? यही मूलभूत मुद्दा है। इसका दायरा ब्रिटिश संपादक जॉन मोरले की उक्ति के अनुसार, अर्थात ”विचार, अभिव्यक्ति और हरकत की सीमा में ही हो।”