भगवती प्रसाद द्विवेदी.
बहुत तेजी से महानगरीय शक्ल अख्तियार करने को बेताब अपने शहर पटना के अंधाधुंध विकास से खुशी भी होती है औऱ कोफ्त भी. गिद्धों के डैने सरीखे यहां से वहां तक फ्लाईओवरों की भरमार,सड़कों से गली-कूचों तक में कुकुरमुत्ते से फैलते -पसरते जा रहे अपार्टमेटों के कंकरीटी जंगल,यमदूतों-से अट्टहास करते बेशकीमती वाहनों की बेताहाशा आवाजाही की चिल्ल-पों,उबाऊ जाम और आए दिन भीषण दुर्घटनाओं की चपेट में आते गंवई-शहरी. फुटपाथों पर कहीं गाड़ियों की कतारें,तो कहीं गुमटियों-ठेलों,खटालों,खोमचेवालों की धक्कामुक्की.पदयात्रियों के लिए तो शायद कोई जगह ही न बची हो. आमजन, आखिर जाएं तो जाएं कहां ? बिहार की शताब्दी के पार भी समाज का निचला-बिचला तबका हाशिए पर जीने को अभिशप्त है.
यही हाल साहित्य –संस्कृति के हलके का भी है.कभी बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, साहित्य सम्मेलन,पुस्तक भंडार,पारिजात प्रकाशन जैसी जगहों पर साहित्यकारों संस्कृतिकर्मियों के जमावड़े हुआ करते थे. साहित्यिक-सांस्कृतिक विमर्श के बहाने बहस-मुबाहिसों,चर्चा-परिचर्चाओं के तो वे केंद्र होते ही थे,विचार विनिमय के साथ नामी-गिरामी हस्तियों से घुलने-मिलने,लेखन की ताजातरीन गतिविधियों, रचना-प्रक्रिया से रू-ब-रू होने व एक-दूसरे के सुख-दुःख को साझा करने के जीवंत अड्डे भी हुआ करते थे. वैसी ही अड्डेबाजी कॉफी हाऊस और कुछेक छोटे-मोटे चायघरों में भी नियमित बिना नागा हुआ करती थी,जहां हर खेमे,तबके के रचनाकार अपनी सहभागिता सुनिश्चित करते थे. शहर से बाहर का कोई व्यक्ति जब भी उन अड्डों पर हाजिर होता था, सृजन-संवेदना से सम्बद्ध पूरी बिरादरी से एक साथ मिलकर अभिभूत हो जाया करता था. गोष्ठियों-सम्मेलनों के कार्यक्रम वहीं तय हो जाते थे औऱ आमंत्रण की सूचना भी हाथों-हाथ थमा दी जाती थी.फिर तो साहित्यिक आयोजनों की भव्यता व गरिमा देखते ही बनती थी.तब पत्र-पत्रिकाओं के अड्डे भी उतने ही मशहूर थे,जहां लघुपत्रिकाएं भी करीने से परोसी और बेची जाती थी.शहर की रंगशालाओं में रोज ही कोई –न-कोई नाटक अवश्य मंचित होता था और रंगप्रिय दर्शकों की तादाद अच्छी खासी हुआ करती थी.
पिछली सदी के उत्तरार्द्ध तक पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं थी. चाहे आकाशवाणी का सर्वभाषा कवि सम्मेलन हो अथवा अन्य कोई महत्वपूर्ण साहित्यिक आयोजन,शहर के अखबार प्रमुखता के साथ विस्तृत रपट सचित्र प्रकाशित करते थे (कभी –कभी तो पूरे पृष्ठ पर). तब साइकिल से और पैदल भी (इलेवन अप से) डाकबंगला चौराहे तक पान खाने जाने के भी अपने ही मजे थे. तब यहां के लोग संवेदनशून्य नहीं हुए थे. मुझे याद है यहां का अकेला रहनेवाला एक दोस्त जब गंभीर रूप से बीमार पड़ा था,तो सभी मित्र तब तक तन-मन-धन से उसकी तीमारदारी करते रहे थे,जब तक सुदूर गांव से उसके परिजन नहीं आ गये थे. वे लोग भी साथियों की संवेदनशीलता के प्रति नतमस्तक हुए बगैर नहीं रह पाए थे. अपने एक गीत के जरिए मैं पूछना चाहता हूं कि विकास-समृद्धि की ऊंचाई को छूते अपने इस शहर में वैसे लोग कहां हैं—“ कौन सी वह बात थी / हस्ती हमारी ना मिटी /पीर पीडित की थी अपनी/ अब तो रंगत गिरगिटी /आसरा था, आस थी / इंसानियत की सहचरी / कहां हैं वे लोग / वे बातें उजालों से भरी ? “