लालू-नीतीश के भरोसे कांग्रेस

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 मुकेश महान,पटना.बिहार विधान सभा चुनाव 2015 कई मायने में अलग होगा. भाजपा जहां लोकसभा चुनाव 2014 के बाद से ही मिशन बिहार पर लगातार काम करती रही, वहीं दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस इस चुनाव को हल्के में लेते रही. आखिरी समय में नीतीश,लालू के साथ मिलकर और महागठबंधन में शामिल होना यह बताता है कि प्रदेश चुनाव में कांग्रेस ने अपने-आपको लालू प्रसाद और नीतीश कुमार के भरोसे छोड़ दिया है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित भाजपा ने अपने स्टार प्रचारकों की फौज बिहार विधान सभा चुनाव में लगा रखी हैं. प्रधानमंत्री भी ताबड़तोड़ बिहार का दौरा कर अपनी उपलबधियां जनता को बताने में जुटे हैं तो राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह बिहार में ही एक तरह से कैंप किये हुए हैं. बिहार से बाहर रह कर भी वह बिहार पर पैनी नजर रख रहे हैं ताकि उनका कोई एक सिपाही कहीं चूक न कर सके.

      दूसरी तरफ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष की एक-दो सभा, स्टार प्रचारक राहुल गांधी सहित कुछ उन्य नेताओं का बिहार दौरा या चुनावी दौरा औपचारिकता से अधिक कुछ भी नहीं दिखती. जीत हासिल करने की बात तो दूर, सीटें बढ़ाने को लेकर भी कांग्रेस और कांग्रेसी नेताओं में कहीं से कोई गंभीरता नहीं दिखती. यही कारण है कि दोनों राष्ट्रीय पार्टियों के बीच चुनावी मुकाबला में कोई तुलना ही नहीं है.

      तालमेल या गठबंधन में सीटों की संख्या कम मिलना एक बात है और अपने उम्मीदवारों को भी उसी के भरोसे छोड़ देना या गठबंधन के भरोसे छोड़ देना दूसरी बात है. जबकि कांग्रेस भी इस बात को अच्छी तरह समझती है कि इस महागठबंधन में शामिल होना उसकी मजबूरी ही थी. इस बात से जनता दल यू और राष्ट्रीय जनता दल भी अच्छी तरह से परिचित है. इस महागठबंधन में कांग्रेस की हैसियत को अगर आंका जाए तो न तो शर्तों में समानता दिखती है न सीटों के अनुरपात में. फिलवक्त लालू प्रसाद और नीतीश कुमार भी अपने सहित अपने पार्टियों के वजूद बचाने की लड़ाई में जुटे दिखते हैं. उनके लिए कांग्रेस के उम्मीदवारों की जीत-हार का कोई विशेष मतलब नहीं दिखता. यह ज़ाहिर भी हो चुका है जब राहुल गांधी के मंच पर लालू प्रसाद और नीतीश कुमार अनुपस्थित दिखे.

      दुर्भाग्य है कि इस घटना के बाद उठे सवालों पर भी लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने पुनर्विचार करना उचित नहीं समझा तो कांग्रेस ने भी अपनी  राजनीति में सुधार नही किया. साफ है कि सूबे के इस बिधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार को अपनी-अपनी पार्टियों की चिंता है और वो ही कांग्रेस पर अधिक से अधिक जीत दर्ज कराना चाहते है और कांग्रेस के साथ बस साथ निभाने की औपचारिकता पूरी कर रहे हैं. ऐसे में कांग्रेस को भी मिशन 40 बना कर संघर्ष करने की जरूरत थी, जो संघर्ष कहीं से नहीं दिखती है. न महागठबंधन के स्तर न प्रवेश कांग्रेस के स्तर पर और न राष्ट्रीय कांग्रेस के स्तर पर. कांग्रेस के टिकटार्थी अपने भरोसे मैदान में डटे हैं. स्थानीय स्तर पर ये कांग्रेसी उम्मीदवार जो कर सकते हैं कर रहे हैं. लेकिन प्रचार के स्तर पर वह अपने को काफी पीछे पाते हैं. पार्टी का जो सपोर्ट उन्हें मिलना चाहिए था वो भी उन्हें नहीं मिल रहा है. प्रचार के तकनीक में भी वह पिछड़ रहे हैं. ऐसे में कभी-कभी उनका आत्मविश्वास भी डगमगाता दिख रहा है.

       दूसरी ओर भाजपा हर स्तर पर बढ़-चढ़ कर उम्मीदवारों के साथ खड़ी दिख रही है. चुनाव प्रचार और स्टार प्रचारक के रूप में तो वह सबसे आगे दिख रही है. प्रचार और जनता के बीच अपनी बातें रखने की नई- नई तकनीक को लेकर भी वह औरों से मिलों आगे दिखती है.

      ऐसे में बिहार विधानसभा चुनाव 2015 के संदर्भ में दोनों की तुलना बेमानी सी लगती है.फिर भी अभी समय है. अपने गठबंधन साथियों से परे चुनावी रणनीति बदलने और मिशन 40 को पूरा करने के लिए नई राजनीति बनाने के बजाय राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस ने जहां पूरी पार्टी को लालू प्रसाद के हवाले छोड़ दिया था उसी प्रकार इस चुनाव में लालू-नीतीश के भरोसे छोड़ दिया है.

भाजपा का मिशन बिहार

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का लगातार बिहार दौरा और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की नजर हर क्षण बिहार पर बने रहना यह बताता है कि बिहार चुनाव 2015 को भाजपा कितनी गंभीरता से ले रही है. चुनाव बाद स्थिति क्या होगी यह और बात है लेकिन भाजपा नेताओं का पसीना इस चुनाव में बहता हुआ दिख रहा है. हालांकि इस बीच भाजपा के आंतरिक कलह, और दागी नेता भी अपना असर जब-तब दिखा रहे हैं लेकिन भाजपा नेतृत्व इन सबसे परे अपने एकमात्र लक्ष्य में जुटा दिखता है. उसका यह प्रयास भाजपा में राष्ट्रीय स्तर पर भी दिखता है और प्रदेश स्तर पर भी. स्टार प्रचारकों की फौज ही विधानसभा क्षेत्र में स्टार प्रचारकों की सभा, सत्ता, सरकार और नीतीश सहित लालू प्रसाद पर भी बयानों की बौछारें, अपनी उपलब्धियों को जनता तक पहुंचाने के आधुनिक तकनीक और विपक्षियों के हमलों का जवाब देने का अलग अंदाज को भाजपा ने अपना चुनावी हथियार बना रखा है. अब देखना है कि ये ‘हथियार’ भाजपा में कितनी चमक पैदा करते हैं.

महागठबंधन का महामिशन

चुनाव के ऐन पहले महागठबंधन की कोशिश तो हुई लेकिन यह पूरी तरह सफल नहीं हो पाया. हां बिहार के स्तर पर लालू प्रसाद की राजद और नीतीश कुमार की जदयू ने आपस में गठबंधन जरूर कर लिया. साथ में कांग्रेस भी मिल गई. और यह मिला-जुला स्वरूप कहलाने लगा महागठबंधन. लेकिन गठबंधन में गांठ भी दिखने लगा. कांग्रेस का मंच साझा करने से लालू प्रसाद और नीतीश कुमार बचते रहे. लेकिन लालू और नीतीश आपस में मंच साज्ञा कर रहे हैं. अपनी जीत और महागठबंधन को बहुमत के लिए रात-दिन एक किये हुए हैं. नीतीश कुमार जहां अपने विकास को प्राथमिकता से जनता तक पहुंचा रहे हैं वहीं लालू प्रसाद अपने अंदाज में विपक्षियों पर प्रहार कर रहे है. जब तब मंडल और आरक्षण जैसे मुद्दों को भी उछालने से वो चुकते नहीं हैं.  जातिवादी राजनीति का बी सहारा लेते हैं और जनमत महागठबंधन के पक्ष में जुटे हैं. नीतीश भी भाजपा की पोल खोलने में जुटे हैं. विशेष पैकेज को रिपैकेजिंग बता कर जनता को सच बताने का एहसास कर रहे हैं. अब जनता उनके इस ‘सच’ को कितना महसूस कर पाती है यह देखने वाली बात होगी.

सहयोगियों का सहयोग कितना

लोजपा, रालोसपा, हम जैसी भाजपा की सहयोगी पार्टियां अपने स्तर पर जुटी हैं. इन्हें भाजपाई संसाधन का लाभ चुनाव में मिल रहा है. इनके अपने स्टार प्रचारकों के साथ-साथ भाजपा के स्टार प्रचारकों का भी साथ मिल रहा है. जहां-तहां ये पार्टियां भाजपा उम्मीदवारों को भी सहयोग कर रही है और भाजपा को इसका लाभ भी मिलेगा. लेकिन लोजपा के रामविलास पासवान, चिराग पासवान जैसे मुख्य नेता अपनी उम्मीदवारों की जीत को लेकर विशेष प्रयासों में जुटे हैं तो रालोसपा के उपेंद्र कुशवाहा और अरूण कुमार जैसे नेताओं की प्राथमिकता पार्टी उम्मीदवार ही है. यह और बात है कि वो अपने वोटरों से भाजपा गठबंधन को वोट देने की बात कर रहे हैं. हम के जीतनराम मांझी बिहार में राजनीति के नये सितारे हैं. एक खास वर्ग में अपनी लपैठ मजबूत करने में जुटे हैं. उनके पास नीतीश कुमार के विरोध के अलावा और कोई सशक्त चुनावी हथियार भी नहीं है. लेकिन उनके दावे बड़े हैं.

… और भी है इस संग्राम में

कुछ अन्य धरा भी इस चुनाव में सक्रिय हैहै. पप्पू यादव अपनी जनअधिकार पार्टी और औवैसी भी अपने दल के साथ इस चुनाव में सक्रिय हैं. संभावना ये है कि यह दोनों पार्टियां बहुमत को प्रभावित कर सकें या नहीं लेकिन अपने-अपने खास इलाके में ये कुछ सीटें हासिल कर सकती हैं.

समाजवादी पार्टी सहित वामदल भी अपना वजूद बनाए रखने के लिए जी तोड़ कोशिश कर रही हैं तो कुछ सीमावर्ती क्षेत्र में बसपा भी जीत से खाता खोलना चाहती है. अब देखना ये है कि भाजपा गठबंधन और महागठबंधन से परे इन पार्टियों और नेताओं पर जनता कितना भरोसा कर पाती है.

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