मुकेश महान
महिलाओं को लेकर कई सामाजिक मिथक लगातार टूट रहे हैं और कई तो टूट भी चुके हैं.साथ ही यह भी सच है कि आज भी समाज में महिलाओं को लेकर पारंपरिक सामंतवादी अवधारणाएं भरपूर दिखती हैं, आज भी अपने वजूद के लिए महिलाओं को कई मोर्चे पर एक साथ संघर्ष करना पड़ता है. छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों पर महिलाओं की निर्भरता आज भी ज्यों की त्यों है. इन सब के बावजूद यह भी एक बड़ा सच है कि वे अपने लिए खुद नया आकाश,नया फलक रच-गढ रही हैं और अपनी उड़ान भी खुद भर रही हैं और अपनी मंजिल खुद तय कर रही हैं. पटना में रह रही ममता मेहरोत्रा ऐसी ही एक विशेष महिला हैं.
ममता की विशेषता यह है कि वो साहित्य, शिक्षा, कला, फिल्म और समाजसेवा से एक साथ जुड़ी हुईं हैं. ममता के पति सीनियर आइएएस अधिकारी हैं इसलिए वो स्टेटस और लाबी मेनटेन करने की जिम्मेदारी भी इन पर है. खुद एक प्रतिष्ठित विद्यालय की प्रिंसिपल हैं, जहां बड़ी संख्या में छात्र –छात्राएं तो हैं, टीचर भी बड़ी संख्या में हैं. साफ है कि इन सब की जिम्मेदारी भी ये अपने साथ लिए चलती हैं. व्यस्त पति के आलावे दो बच्चे की जवाबदेही भी इनके उपर है.खास बात ये है कि इन सभी जिम्मेदारियों और जवाबदेहियों का निर्वहन वो बड़ी कुशलता पूर्वक करती रही हैं . यही कारण है कि जहां इनके स्कूल के लोग इनसे खुश और संतुष्ट हैं वहीं इनके परिवार को भी कभी कोई परेशानी नहीं होती. एक बेटी बीटेक और एमबीए करने के बाद एक प्रतिष्ठित कंपनी में नौकरी कर रही हैं वहीं बेटा अभी पटना से ही इंटर कर रहा है. साहित्य और लेखन के क्षेत्र में भी बड़ी कुशलता से अपनी कलम चला रही हैं. नतीजे के रुप में इनकी 16 किताबें अब तक बाजार में आ चुकी हैं. इनकी खासियत यह भी कि ये हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भाषाओं में समान रुप से पकड़ रखती हैं और किताबें भी दोनों भाषाओं में किताबें लिखती हैं. भाषा के साथ साथ किताबों के लिए चयनित इनका विषय भी विविधताओं से युक्त है. छोटी छोटी कहानियों से इन्हें विशेष लगाव है, जबकि जेंडर, महिला सशक्तिकरण, नाटक और फिल्म- डाक्यूमेंट्री के स्क्रिप्ट के लिए भी जोरदार ढंग से इनकी कलमें चलती रही हैं .
साहित्यसे परे प्रकृति के साथ खुद को अभिव्यक्त करने के लिए रंगों का भी जमकर सहारा लेती रही हैं. पेंटिग इनके जीवन का अहम हिस्सा बना हुआ है.जरुरत पड़ने पर जब तब ये इस माध्यम का सहारा भी लेती हैं .एस सी आर टी की एक फिल्मों में अभिनय भी कर चुकी हैं तो कुछ शार्ट फिल्मों का निर्माण भी इन्होंने किया है . आगे भी इस दिशा में वो सक्रिय हैं और कई योजनाओं पर एक साथ काम कर रही हैं .
ऐसे में यह सवाल तो बनता ही है कि एक साथ इतने सारे कार्यों को कैसे अंजाम देती रही हैं वो, लेकिन जवाब उनके भव्य व्यक्तित्व में खुद ब खुद दिख जाता है .आत्मविश्वास से लवरेज आखें, उदारता और दृढता का एक साथ मिला जुला भाव उनके चेहरे पर एक अजीब तरह की गंभीरता प्रदान करता है.लेकिन सबसे अच्छी बात है कि सरलता –सहजता इनसे दूर नहीं हो सका है.वो कहती हैं, ‘स्वनुशासन से हर काम को मैं वक्त पर कर पाती हूं. मेरे लिए सबकुछ निर्धारित है. यदि आपकी जिंदगी अनुशासन से चलती है और आपका निश्चय दृढ है तो आपके सामने कोई भी मुश्किल ठहर नहीं सकती. ’
वर्ष 2002 में बिहार में महिलाओं के लिए पहला हेल्पलाइन की शुरुआत करने में ममता मेहरोत्रा ने अहम भूमिका निभाई थी. वो हेल्पलाईन की कॉआर्डिनेटर थी. यह हेल्पलाइन बिहार में महिलाओं के खिलाफ घरेलु हिंसा को रोकने और कम करने के मकसद से बनाया गया था.इस हेल्पलाइन के माध्यम से ममता मेहरोत्रा ने चौतरफा काम किया था. समाजसेवा का यह अलग अंदाज था उनका.
स्कूली प्रबंधन को जहां वो पेशेवर अंदाज में लेती हैं वहीं लेखन में वो खुद को पूरी तरह से डूबो कर सुकून की तलाश करती हैं. स्कूल उन्हें आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भरता प्रदान करता है,तो लेखन उन्हें रूहानी सुकून देता है. वो अपनी भावनाओं के पंख पर विचारों की खेती करती हैं और फसल के रुप में किताबें उगती हैं. तभी तो आत्मविश्वास भरी मुस्कान के साथ वो कहती हैं, ‘स्कूल संचालन एक पेशा है, प्रबंधन से जुड़ा हुआ काम है, लेकिन लेखन ! यह तो अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम है. मैं लंबे समय से लिख रही हूं, और लिखने में मुझे सुकून मिलता है।’
कई किताबें लिखने के बावजूद अभी उन्हें लगता है कि उनके जेहन में कुछ ऐसी बातें हैं जिसे खुलकर लेखनी से अभिव्यक्त करने से हिचक रही हैं. इस संबंध में जब उन्हें टटोलने की कोशिश की गई तो थोड़ी देर तक खामोशी अख्तियार करने के बाद वो कहती हैं, ‘मेरे अंदर अभी भी कुछ ऐसा है, जिन्हें मैं कह नहीं पा रही हूं. शायद उसे कहने का अभी समय नहीं आया है.हो सकता है कहीं न कहीं मैं डर भी रही हूं. जब आप कुछ लिखेंगे तो प्रतिक्रिया तो होगी ही. और यदि आप स्थापित सामाजिक नार्म्स को चुनौती देते हैं तो प्रतिक्रिया और तीखी होगी.शायद यही डर है. मुझे लगता है कि एक लेखक हमेशा उथल पुथल की मानसिकता में रहता है. इस दौर से मैं भी गुजरती हूं और मुझे जरूरत होती है अड़े रहने की.
बड़ी सहजता से ममता कहती हैं मैं स्वीकार करती हूं कि मेरे अंदर कई विरोधाभाष हैं. इसे लेकर परिवार में भी कभी कभी मेरी आलोचना होती है.अपनी बातों को और विस्तार देती हैं.. मसलन खुलापन तो मुझे स्वीकार है, लेकिन एक मर्यादा में. विचारों के खुलेपन से मुझे कोई परहेज नहीं, लेकिन खुलेपन का यह मतलब नहीं है कि आप घर से बाहर निकल जाये और सिगरेट, शराब और अय्याशी में डूब जाये. मैं इसे गलत मानती हूं. जीवन में मूल्यों का महत्व तो होना ही चाहिए. ’
लेखक के तौर पर सामाजिक विषमता और चरित्र की विविधता ममता मेहरोत्रा को गहराई से प्रभावित करता है. शोषक और शोषितों की बात हो तो वो खुद को शोषितों के पक्ष में देखती हैं. लेकिन इसके लिए हिंसक तौर- तरीका उनके लिए न्ययसंगत नहीं होता. बेबाक अंदाज में वो कहती हैं, ‘बिल गेट से हम सबक ले सकते हैं जो अर्न भी कर रहे हैं और सामाजिक जिम्मेवारियों से भी रूबरू हो रहे हैं.’
‘बुनकर की बेटी’ और ‘हॉर्न ’ जैसी सशक्त कहानियों की रचना करने वाली ममता मेहरोत्रा प्रेमचंद से काफी प्रभावित हैं. इनकी कहानियों में भी ग्रामीण पृष्ठभूमि वाले किरदारों की प्रधानता है. वैसे शहरी और खासकर प्रशासनिक हलकों के किरदार भी उनकी कहानियों में अपने दम खम के साथ दिख जाते हैं.
‘अलकेमी ’ और ‘ गॉन विद विंड’ उनकी प्रिय पुस्तकों में शुमार है. इसके अलावा वो शेक्सपीयर को भी बड़े चाव से पढ़ती हैं.ममता मेहरोत्रा फिलहाल ‘माधवी’ नाटक में व्यस्त हैं इसकी रचना और मंचन इनकी प्राथमिकताओं में है.